आदर्श : सत्य
उप आदर्श: जागरूकता
एक समुराई बौद्ध धर्म के ज़ेन मास्टर, हकुइन, के पास आया और उसने मास्टर से पूछा:
स्वर्गलोक कहाँ है? नरक कहाँ है? स्वर्गलोक और नरक के द्वार कहाँ हैं?
समुराई को केवल दो ही चीज़ों के बारे में पता था- जीवन और मृत्यु. उसे कोई तत्त्वज्ञान नहीं था. उसे मास्टर से सिर्फ़ इतना ही जानना था कि नरक के द्वार से बचकर वह स्वर्गलोक कैसे पहुँच सकता है. हकुइन ने समुराई के प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार से दिया जिससे कि योद्धा की समझ में आ सके-
तुम कौन हो? – हकुइन ने पूछा.
मैं समुराई का अध्यक्ष हूँ – योद्धा ने उत्तर दिया- और महाराज मेरा सम्मान करते हैं.
हकुइन ज़ोर से हँसा और बोला :
क्या तुम वास्तव में समुराई के अधिपति हो? तुम तो किसी बेचारे गरीब के समान लगते हो!
यह सुनकर समुराई के अहंकार को चोट पहुँची. मास्टर के पास आने की वजह भूलकर उसने झट से अपनी तलवार निकाली और हकुइन की जान लेने पर उतर आया.
समुराई की दशा देखकर हकुइन एक बार पुनः हँसा और बोला:
यह नरक का द्वार है. अपने अहंकार व क्रोध में तलवार लेकर तुम नरक का द्वार खोलते हो.
समुराई समझ गया. उसने स्वयं को शांत किया और तलवार म्यान में डाली.
इस पर हकुइन बोला:
और इस प्रकार तुम स्वर्गलोक का द्वार खोलते हो.
सीख:
स्वर्गलोक और नरक हमारे ही भीतर हैं. यही सत्य है. इनके द्वार भी हमारे ही अंदर हैं. यदि हम सतर्क नहीं हैं तो यह नरक का द्वार है. यदि हम चौकस और सचेत हैं तो यह स्वर्गलोक का द्वार है. परंतु अक्सर लोगों को लगता है कि स्वर्ग और नरक कहीं बाहर हैं. स्वर्ग और नरक मरनोपरांत जीवन नहीं हैं. यह दोनों यहीं वर्त्तमान में हैं. उनके द्वार सदा खुले रहते हैं. हर पल हम स्वर्ग व नरक में चयन करते हैं. निरंतर जागरूकता का अभ्यास करने से हम सही चुनाव करने में अवश्य सफल हो सकते हैं.
Source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com
अनुवादक- अर्चना