Archive | April 2014

ईश्वर अमीर व गरीब में भेदभाव नहीं करते

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आदर्श : प्रेम
उप आदर्श : निष्ठा

केरल के गुर्वायुर में भगवान कृष्ण का मंदिर बहुत लोकप्रिय है और हज़ारों भक्त इस मंदिर में नियमित रूप से दर्शन के लिए आते हैं।

एक बार एक भक्त ने इस मंदिर में, अपने पैरों के दर्द से मुक्ति पाने की उम्मीद में ४१ दिनों की पूजा की। वह स्वयं चलने में असमर्थ था इसलिए उसे हर जगह उठाकर ले जाना पड़ता था। चूँकि वह अमीर था, इसलिए भाड़े पर लोग रखने में समर्थ था जो उसे ढोकर मंदिर के चारों ओर ले जाते। हर सुबह उसे नहाने के लिए मंदिर के तालाब तक उठाकर ले जाया जाता था। उसने इस प्रकार अपनी पूजा के ४० दिन पूर्ण कर लिए थे। परन्तु उसकी श्रद्धापूर्ण तथा सच्ची प्रार्थना के बावजूद उसकी पीड़ा में कोई सुधार नहीं था।

भगवान कृष्ण का एक और भक्त था जो गरीब था और उसी मंदिर में वह अपनी पुत्री के विवाह के लिए पूर्ण श्रद्धा से प्रार्थना कर रहा था। वर निर्धारित हो चुका था और उसकी बेटी की सगाई भी हो चुकी थी। पर उसके पास सोने के गहने खरीदने तथा विवाह का प्रबंध करने के लिए पैसे नहीं थे। इस भक्त के स्वप्न में भगवान आए और उसे अगली सुबह मंदिर के तालाब पर जाने का निर्देश दिया। भगवान ने भक्त को आदेश दिया कि उसे वहाँ सीढ़ियों पर एक छोटी-सी थैली मिलेगी जिसे लेकर वह पीछे देखे बिना भाग जाए।

अगला दिन अमीर भक्त के लिए ४१वां दिन था। हालाँकि उसके पैरों के दर्द में सुधार नहीं था पर फिर भी भगवान कृष्ण को अर्पण करने के लिए वह एक छोटी थैली में सोने के सिक्के लेकर आया था। स्नान के लिए जाने से पूर्व उसने थैली को मंदिर के तालाब की सीढ़ियों पर रखा। स्वप्न में भगवान के सुझाव के अनुसार वह गरीब भक्त मंदिर के तालाब पर गया और सीढ़ियों पर उसे एक छोटी सी थैली मिली। उसे उठाकर पीछे मुड़े बिना वह भाग गया। अमीर भक्त ने किसी को भगवान कृष्ण के लिए रखी थैली लेकर भागते हुए देखा। वह तत्काल पानी से बाहर निकला और उस चोर के पीछे भागने लगा। वह चोर को पकड़ नहीं पाया और निराश होकर लौट आया।

अचानक उसे यह अहसास हुआ कि चोर को पकड़ने के लिए वह दौड़ा था जबकि इससे पहले उसे उठाकर ले जाना पड़ता था। इस चमत्कार के अनुभव से अचंभित वह खड़ा का खड़ा ही रह गया। वह अति आनंदित था कि अब वह पूर्णतया पीड़ामुक्त था। भगवान कृष्ण की इस अनंत कृपा के लिए उसने प्रभु को प्रचुर धन्यवाद दिया। इस तरह ४१वे दिन ईश्वर अपने दोनों भक्तों की श्रद्धा से प्रसन्न हुए और उन्हें उदारतापूर्वक आशीर्वाद दिया। अमीर भक्त को अपने पैर के दर्द से मुक्ति मिली और गरीब भक्त को अपनी पुत्री के विवाह हेतु थैली में पर्याप्त सोने के सिक्के मिले।

दोनों ने कृपालु भगवान कृष्ण को अपनी प्रार्थनाएं सुनने के लिए धन्यवाद दिया।

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सीख:

ईश्वर ने दोनों भक्तों को आशीर्वाद दिया और उनकी भक्ति को पुरस्कृत किया। यह कथांश मेरे मन में तब आया जब हमारे अतिप्रिय बाबा अमीर व गरीब, दोनों भक्तों को एक समान आशीर्वाद देते हैं। अमीर भक्तजन विभिन्न परियोजनाओं के लिए धन दान देते हैं जबकि गरीब भक्तजन इन परियोजनाओं को सफल बनाने के लिए निस्वार्थ सेवा करते हैं। भगवान के तौर-तरीके भिन्न हैं परन्तु वे हर उससे प्रेम करते हैं जो उनके प्रति निष्ठावान है।

स्त्रोत : http://premarpan.wordpress.com

वसुंधरा व अर्चना द्वारा अनुवादित

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु – अपने शिक्षक का आदर

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उप आदर्श : सम्मान, आदर
आदर्श : सही आचरण

गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरः
गुरुः साक्षात्परब्रह्मा तस्मै श्री गुरुवे नमः

गुरुर ब्रह्मा : गुरु ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) के समान हैं
गुरुर विष्णु : गुरु विष्णु (संरक्षक) के समान हैं
गुरुर देवो महेश्वरा : गुरु प्रभु महेश्वर (विनाशक) के समान हैं
गुरुः साक्षात : सच्चा गुरु, आँखों के समक्ष
परब्रह्म : सर्वोच्च ब्रह्म
तस्मै : उस एकमात्र को
गुरुवे नमः : उस एकमात्र सच्चे गुरु को मैं नमन करता हूँ

गुरु गु : अन्धकार
रु : हटाने वाला

कहानी :
एक समय की बात है, एक रमणीय वन में एक आश्रम था। वहाँ महान ऋषि धौम्य अपने अनेकों शिष्यों के साथ रहते थे। एक दिन एक तंदुरूस्त एवं सुगठित बालक ,उपमन्यु, आश्रम में आया। वह देखने में शांत स्वभाव का जान पड़ता था लेकिन उसका भेष मैला व अव्यवस्थित था। बालक ने महान ऋषि धौम्य को नमन किया और उसे उनका शिष्य स्वीकार करने का निवेदन किया।
उन दिनों जीवन के वास्तविक आदर्शों तथा सभी में ईश्वर को देखने की शिक्षा-प्रशिक्षण देने के लिए, शिष्यों को स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय गुरु का होता था।
ऋषि धौम्य इस तगड़े बालक, उपमन्यु को स्वीकार करने के लिए सहमत हो गए। हालाँकि उपमन्यु आलसी तथा मंद बुद्धि था पर उसे आश्रम के अन्य सभी शिष्यों के साथ रखा गया। वह अपने अध्ययन में ज़्यादा रूचि नहीं लेता था। वह धर्मग्रंथों को न तो समझ पाता था और न ही उन्हें कंठस्त कर पाता था। उपमन्यु आज्ञाकारी भी नहीं था। उसमें कई उत्तम गुणों का अभाव था।
ऋषि धौम्य एक ज्ञानसम्पन्न आत्मा थे। उपमन्यु के सभी दोषों के बावजूद वह उससे प्रेम करते थे। वे उपमन्यु को अपने अन्य उज्जवल शिष्यों से भी अधिक प्यार करते थे। उपमन्यु भी ऋषि धौम का प्रेम परस्पर करने लगा। अब वह अपने गुरु के लिए कुछ भी करने को तैयार था।

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गुरु को ज्ञात था कि उपमन्यु बहुत ज़्यादा खाता है और इस कारण सुस्त और मंद था। अत्यधिक भोजन इंसान को उनींदा और अस्वस्थ महसूस कराता है और हम स्पष्ट रूप से सोच नहीं पाते हैं। इससे ‘तमोगुण ‘ (सुस्ती) का विकास होता है। ऋषि धौम्य चाहते थे कि उनके सभी शिष्य उतना ही खायें जितना स्वस्थ शरीर के लिए अनिवार्य है तथा 4″ की निरंकुश जीभ पर नियंत्रण रखें।
अतः ऋषि धौम्य ने उपमन्यु को आश्रम की गायों को चराने के लिए अति सवेरे भेजा और संध्याकाल लौटने को कहा। ऋषि की पत्नी उपमन्यु के लिए दोपहर का आहार बनाकर देतीं थी।
पर उपमन्यु की भूख जोरावर थी। भोजन करने के पश्चात् भी वह भूखा रहता था। अतः वह गायों का दूध दोहकर दूध पी लेता था। ऋषि धौम्य ने देखा की उपमन्यु मोटा हो रहा था। ऋषि चकित थे कि गायों के साथ चारागाह तक चलने और सादा भोजन करने के बाद भी उपमन्यु का मोटापा कम नहीं हो रहा था। उपमन्यु से सवाल करने पर उसने ईमानदारी से बताया कि वह गायों का दूध पी रहा था। ऋषि धौम्य ने कहा कि उसे दूध नहीं पीना चाहिए क्योंकि वह गायें उसकी नहीं थी। उपमन्यु को अपने गुरु की आज्ञा के बिना दूध पीने की अनुमति नहीं थी।
उपमन्यु सरलता से सहमत हो गया। उसने देखा कि बछड़े जब अपनी माताओं से दूध पीते थे तो दूध की कुछ बूँदें गिर जातीं थी। वह इस दूध को अपने हाथों में एकत्रित कर पी जाता था।
ऋषि धौम्य ने देखा कि उपमन्यु का वज़न अभी भी कम नहीं हो रहा था। उन्हें बालक से ज्ञात हुआ कि वह क्या कर रहा था। ऋषि ने उपमन्यु को सप्रेम समझाया कि गाय के मुँह से गिरा हुआ दूध पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। उपमन्यु ने कहा कि वह इस दूध का सेवन पुनः नहीं करेगा।
परन्तु उपमन्यु अभी भी अपनी भूख पर नियंत्रण नहीं कर पाया। एक दोपहर उसने पेड़ पर कुछ फल देखे और उन्हें खा लिया। ये फल जहरीले थे और उन्होनें उपमन्यु को अँधा बना दिया। उपमन्यु दहल गया और यहाँ-वहॉँ लड़खड़ाते हुए एक गहरे कुएँ में जा गिरा। जब गायें उसके बिना घर लौट गईं तो ऋषि धौम्य उपमन्यु की तलाश में निकल गए।

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उन्होंने उसे एक कुएँ में पाया और उसे बाहर निकालकर लाये। उपमन्यु के लिए दया और करुणा से परिपूर्ण ऋषि धौम्य ने उसे एक मन्त्र सिखाया। इस मन्त्र के उच्चारण से जुड़वाँ अश्विनकुमार (देवताओं के चिकित्सक) प्रकट हुए और उन्होंने उपमन्यु की दृष्टि वापस लौटा दी।
तत्पश्चात ऋषि धौम्य ने उपमन्यु को समझाया कि लालच उसे तबाही की ओर ले गई थी। लालच ने उपमन्यु को अँधा बना दिया और वह कुएँ में गिर गया। वहॉँ उसकी मृत्यु भी हो सकती थी। बालक को उसका सबक समझ में आ गया और उसने ज़रूरत से ज़्यादा खाना छोड़ दिया। जल्द ही वह दुरूस्त, स्वस्थ और बुद्धिमान व चतुर भी बन गया।

ऋषि धौम्य ने उपमन्यु के हृदय में गुरु के लिए प्रेम उत्पन्न किया अतः गुरु ने ब्रह्मा, सृष्टिकर्ता, की भूमिका अदा की।
ऋषि ने अपने प्रेमपूर्ण सुझाव से उपमन्यु में प्रेम की संरक्षा की तथा उसे कुएँ में मरने से बचाया। अतः गुरु ने विष्णु, संरक्षक, की भूमिका अदा की।
अंततः गुरु ने उपमन्यु की लालच का विनाश कर महेश्वर, तमोगुणों के विनाशक, की भूमिका अदा की और उपमन्यु को सफलता की ओर अग्रसर किया।

सीख:

गुरु एवं शिक्षक वो हैं जो हम में उचित आदर्शों की स्थापना करते हैं और सही मार्ग दर्शाते हैं। हमें अपने शिक्षक के प्रति सदा आदर और कृतज्ञता दर्शानी चाहिए।

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वसुंधरा एवं अर्चना

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बढ़ई

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आदर्श : सही आचरण
उप आदर्श : एकता, एकजुटता

एक समय की बात है कि दो भाइयों में, जो कि साथ के खेतों में रहते थे, लड़ाई हो गई। ४० वर्षों की साथ-साथ खेती, यंत्र-औज़ार बाँटना, सामग्री और मज़दूरों के लेनदेन तथा आपसी सहयोग के बाद यह पहली अनबन थी। एक छोटी सी गलतफहमी से शुरू हुई अनबन, जोरदार मतभेद में परिवर्तित हुई और अंत में कटु शब्दों की अदला- बदली के बाद, काफी हफ़्तों तक आपस में खामोशी बनी रही।

एक सुबह जॉन के दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने दरवाज़ा खोला तो एक आदमी को बढ़ई के औज़ारों के बक्से सहित वहाँ पाया। उसने कहा, “मैं कुछ दिनों के काम की तलाश में हूँ।” “सम्भवतः आपके पास कुछ छोटे कार्य होंगे? क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूँ?” बड़े भाई ने कहा, “हाँ! मेरे पास तुम्हारे लिए अवश्य ही एक काम है। उस खेत में नाले के उस पार देखो। वह मेरा पड़ोसी है। वास्तव में, वह मेरा छोटा भाई है। पिछले सप्ताह तक हमारे बीच एक चारागाह था। हाल ही में, वह अपना बुलडोज़र नदी के किनारे ले गया और अब हमारे बीच एक नाला है। उसने कदाचित् ऐसा जानबूझकर मुझे तंग करने के लिए किया है पर मैं उससे एक कदम आगे हूँ। तुम उस बाड़े में लकड़ी का ढेर देख रहे हो? मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे लिए एक ८ फुट का घेरा बनाओ- ताकि मुझे उसका खेत या चेहरा देखना न पड़े।”

बढ़ई बोला, “मैं आपकी परिस्थिति समझ गया हूँ। मुझे कील और यंत्र दिखा दीजिये ताकि मैं आपकी पसंद का काम कर सकूँ।” बड़े भाई को शहर जाना था।अतः बढ़ई को सारी सामग्री देकर वह शहर के लिए निकल गया।

बढ़ई ने नापने, चिरवाई और कील ठोकने में दिनभर कड़ी मेहनत की। सूर्यास्त के समय जब किसान लौटा, बढ़ई ने अपना काम तभी समाप्त किया ही था। बढ़ई का कार्य देखकर किसान स्तब्ध रह गया। वहाँ पर बाड़ नहीं था बल्कि एक पुल था। ऐसा पुल जो कि नाले के एक ओर से दूसरी ओर तक फैला हुआ था। इस उत्कृष्ट सेतु पर सीढ़ी पकड़ने का डंडा भी था। और उनका पड़ोसी, उनका छोटा भाई अपनी बाहें फैलाये उनकी तरफ आ रहा था। “आप धन्य हैं कि मेरे इतना कहने तथा करने के बाद भी आपने पुल बनवाया।”

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दोनों भाई पुल के दो छोरों पर खड़े हुए थे और फिर दोनों पुल के बीच में आकर मिले। दोनों ने एक दूसरे का हाथ थाम लिया। उन्होंने घूमकर देखा तो बढ़ई अपने औज़ारों का बक्सा कंधे पर उठा रहा था। बड़े भाई ने पुकारा, “रूको! तुम कुछ दिनों के लिए ठहर जाओ। मेरे पास तुम्हारे लिए बहुत सारी अन्य परियोजनायें हैं।” बढ़ई ने उत्तर दिया, “मैं ज़रूर रूक जाता पर मुझे अनेकों पुल और बनाने हैं।”

सीख:
रिश्तों को तोड़ना आसान है पर बनाना बहुत मुश्किल है। जीवन में मिले प्रेम को संजो कर रखना चाहिए। रिश्तों में उतार चढ़ाव अवश्य आएँगें पर इन अनमोल रिश्तों को संजोने के लिए हमें त्याग करना सीखना होगा। हमारा अहम् एवं घृणा हमें अंधा कर देता है और हम गलत फैसला ले लेते हैं। इसलिए अपनी तथा दूसरों की खुशी के लिए हमें विचार करना चाहिए और आपस में एक दूसरे को समझने का समय देना चाहिए। बाधा उत्पन्न करने के बदले हमें पुलों का निर्माण करना चाहिए।

यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आपने कौन सी गाड़ी चलायी है, अर्थपूर्ण यह है कि आपने कितने लोगों को उनकी इच्छित मंज़िल तक पहुँचाया है।

आपके घर का क्षेत्रफल अहमियत नहीं रखता है, महत्त्वपूर्ण यह है कि आपने अपने घर में कितने लोगों का स्वागत किया है।

आपके पास अलमारी में कितने कपड़े हैं यह प्रमुख नहीं है, महत्त्वपूर्ण यह है कि आपने कितने लोगों को वस्त्र दिए हैं।

यह अर्थपूर्ण नहीं है कि आपके कितने मित्र थे, मुख्य यह है कि कितने लोगों के लिए आप दोस्त थे।

आप किस इलाके में रहते हैं यह प्रमुख नहीं है,महत्त्वपूर्ण यह है कि आपने अपने पड़ोसियों से कैसा व्यवहार किया है।

आपकी त्वचा का रंग मायने नहीं रखता है, आपके चरित्र का मूल प्रमुख है।

वसुंधरा एवं अर्चना

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चटका या साबुत

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उप आदर्श : आशावाद
आदर्श : सत्य

एक जल धारक के पास दो बड़े मटके थे. दोनों मटके एक डंडे के छोरों से टंगे थे, जो वह अपने कंधे पर रखता था. उनमें से एक मटके में दरार थी. इस कारण नदी से मालिक के घर तक पहुँचते-पहुँचते उसमें आधा पानी ही बचता था. जबकि दूसरा मटका पानी की पूरी मात्रा पहुँचाता था. दो साल तक प्रतिदिन ऐसा ही चलता रहा और वाहक अपने मालिक के घर डेढ़ मटका पानी ही पहुँचाता था. निस्संदेह साबुत मटके को अपनी उपलब्धि पर गर्व था. परन्तु बेचारा त्रुटिपूर्ण मटका अपने अधूरेपन पर लज्जित था और दुखी था कि वह अपने कार्य का आधा भाग ही निबाह पाता है.

दो साल तक वह इसे अपनी कठोर विफलता समझता रहा. फिर एक दिन नदी पर उसने जल धारक से कहा,”मैं अपने आप पर शर्मिंदा हूँ और आपसे माफ़ी माँगना चाहता हूँ?”

वाहक ने पूछा, “क्यों? तुम किस लिए लज्जित हो?”

मटका बोला,”पिछले दो वर्षों से मुझमें दरार होने के कारण, आपके मालिक के घर जाते हुए, रास्ते भर मुझसे पानी टपकता रहता है. इस कारण मैं आधा पानी ही पहुँचा पाता हूँ. मेरी इस कमज़ोरी के कारण आपको आपकी मेहनत की पूरी कीमत नहीं मिलती है.”

जल धारक को उस पुराने और चटके हुए मटके पर दया आई और उसने सहानुभूतिपूर्वक कहा,”मैं चाहता हूँ कि मालिक के घर से लौटते हुए तुम रास्ते के ख़ूबसूरत फूलों पर ध्यान दो.”

और वास्तव में जब वे पहाड़ी पर चढ़ रहे थे तो पुराने चटके मटके ने पथ के एक तरफ आकर्षक जंगली फूल देखे. उसे कुछ हद तक प्रसन्नता हुई पर मार्ग के अंत में वह फिर से परेशान था कि उसका आधा पानी चू गया था. अतः एक बार पुनः उसने जल धारक से अपनी भावना व्यक्त की.

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वाहक ने जवाब में कहा, “क्या तुमने ध्यान दिया कि मार्ग में फूल केवल तुम्हारी तरफ ही थे ना कि दूसरे मटके की ओर. ऐसा इसलिए क्योंकि मुझे तुम्हारी कमज़ोरी हमेशा से ज्ञात थी और मैंने सदा उसका पूरा फायदा उठाया है. मैंने मार्ग में फूलों के बीज तुम्हारी तरफ बोए थे और प्रतिदिन नदी से लौटते हुए तुमने उन्हें जल दिया है. दो सालों से, मैंने इन मनमोहक फूलों से मालिक का मेज़ सजाया है. तुम जैसे हो, अगर ऐसे नहीं होते तो ये ख़ूबसूरत फूल मालिक के घर की शोभा कभी नहीं बढ़ा पाते.”

सीख:

इस कहानी का आदर्श यह है कि त्रुटियाँ हम सभी में हैं पर हमें एक पथ का अनुगमन करना है. और जिस मार्ग का हम अनुकरण करते हैं, वह हमारे अस्तित्व का कारण होना चाहिए. हमें अपनी कमज़ोरी को ताकत में परिवर्तित करना चाहिए. कुछ भी या कोई भी निरर्थक नहीं होता. सकारात्मक दृष्टिकोण से हर कोई बदलाव ला सकता है.

वसुंधरा और अर्चना

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रामनवमी

 

राम नवमी हिन्दूओं का सांस्कृतिक पर्व है. यह पर्व अयोध्या के राजा दशरथ तथा महारानी कौशल्या के पुत्र भगवन श्री राम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है. श्री राम, भगवान विष्णु के दशावतारों में सातवें अवतार हैं. रामनवमी का त्यौहार हिंदू तालिका के अनुसार प्रतिवर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को धूमधाम से मनाया जाता है.

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रामनवमी का उत्सव मुख्य रूप से अयोध्या, बिहार, भद्राचलम और रामेश्वरम् में मनाया जाता है. अयोध्या में लाखों करोड़ों लोग सरयू नदी में स्नान करते हैं. भगवान राम के भजन कीर्तन के साथ-साथ, श्री रामचरितमानस के अखंड पाठ का आयोजन होता है. दक्षिण भारत के भद्राचलम में रामनवमी का त्यौहार भगवान राम व सीता माता के विवाह की सालगिरह के रूप में मनाया जाता है. हिन्दू भक्त अपने घरों में भगवान राम और सीता माता की मूर्तियाँ रखकर कल्याणोत्सव करते हैं. दिन के अंत में इन मूर्तियों की झाँकी निकालते हैं. महाराष्ट्र में यह त्यौहार गुडी पड़वा से आरम्भ होता है और चैत्र नवरात्री के रूप में नौ दिनों तक मनाया जाता है.

 

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भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम भी कहते हैं क्योंकि वे धार्मिकता के साक्षात् उदहारण हैं. स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, “भगवान राम सत्य, नैतिकता, आदर्श पुत्र, अनुकूल पति एवं एक आदर्श राजा के प्रतीक है.”
राम नवमी के पर्व का अनुष्ठान सूर्य देवता की पूजा से आरम्भ होता है. चूँकि भगवान राम का जन्म त्रेता युग में दोपहर को अभिजित नक्षत्र में हुआ था, इसलिए मंदिरों में ठीक १२ बजे आरती होती है तथा प्रसाद वितरण होता है. भक्तजन दिनभर श्री राम के स्मरण में भजन, कीर्तन, प्रवचन का आयोजन करते हैं. एक प्रबल श्लोक जो ध्यान में आता है वह निम्न है:
श्री राम राम रामेती रमे रामे मनोरमे
सहस्त्र नाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने.
यह सरल मन्त्र इतना प्रभावशाली है कि यह विष्णुसहस्रनाम के समतुल्य है.

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