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        आलोचना के प्रति सही मनोभाव 

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      आदर्श: उचित आचरण 

  उप आदर्श: सही नज़रिया

  हज़रत मुहम्मद का अली नामक एक शिष्य था. हज़रत मुहम्मद के अन्य शिष्य अक्सर अली की आलोचना करते थे पर अली धीरता ali3से बर्दाश्त करता था. एक दिन अपने मालिक की उपस्थिति में दूसरों ने अली की निंदा की; काफी समय तक धैर्ययुक्त व सहनशील रहने के बाद आख़िरकार अली अपने प्रतिरक्षा के लिए खड़ा हुआ. अली के ऐसा करते ही, हज़रत मुहम्मद तुरंत वहाँ से चले गए. अली ने मालिक का अनुगमन किया और उनसे पूछा, “मालिक, जब दूसरों ने मेरी आलोचना करनी आरम्भ की तब आप वहाँ से चले क्यों आए? आपने ने मेरा समर्थन क्यों नहीं किया?”

  हज़रत बोले, “मैंने देखा कि जब तक तुम मौन थे तब तक तुम्हारे पीछे १० फरिश्ते खड़े थे और तुम्हारी रक्षा कर रहे थे; लेकिन जैसे ही तुमने अपनी वक़ालत करनी शुरू की, उसी क्षण फरिश्ते लुप्त हो गए और मैं भी वहाँ से चला आया.” 

  सीख:

    यह ज़रूरी नहीं है कि फरिश्ते मानव शरीर में हों. फरिश्ते आनंद, धैर्य, सहनशीलता तथा क्षमा के रूप में भी विद्यमान हो सकते हैं. जब हम पलट कर हमला करते हैं तब हम प्रतिशोध व द्वेष जैसे नकारात्मक स्वभाव का प्रदर्शन करते हैं. ऐसा विचार सही नहीं है कि जो अपनी प्रतिरक्षा करते हैं वह ही सशक्त होते हैं. यदि हमारा लक्ष्य शांत जीवन व्यतीत करना या भगवान् की खोज करना है तो दूसरों द्वारा निंदा किए जाने पर हमें उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए. हमें दूसरों की त्रुटियों में संलग्न नहीं होना चाहिए. हम स्वयं में परिवर्तन लाकर अपने उदाहरण से दूसरों में बदलाव ला सकते हैं. हमें हिदायत तभी देनी चाहिए जब हमसे सलाह माँगी जाए. और वह उपदेश दूसरों के प्रति प्रेम से आना चाहिए… वरना हमें दूसरों की आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है.

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source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com

  अनुवादक- अर्चना   

मछुआरा जिसने धर्मात्मा होने का ढोंग किया

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आदर्श: उचित आचरण
उप आदर्श: बदलाव

एक अँधेरी रात एक मछुआरा किसी के निजी बगीचे में चुपके से घुस गया. बगीचे में एक तालाब था जो मछलियों से भरा हुआ था. घर में अँधेरा देखकर मछुआरा बहुत खुश हुआ और सभी को सोता हुआ सोचकर उसने तालाब से कुछ मछलियॉँ पकड़ने का निश्चय किया.

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परन्तु जाल के पानी में गिरने की आवाज़ से घर के मालिक की नींद टूट गई. मालिक बोला, “तुमने सुना? शायद कोई हमारी मछली चुरा रहा है.”fish3

मालिक ने अपने नौकरों को जाँच कर पता लगाने का आदेश दिया. मछुआरा असमंजस में था. घबड़ाहट में स्वयं से बोला, “यह तो इसी तरफ आ रहे हैं? जल्द ही यहाँ आकर मुझे मारेंगे. मैं क्या करूँ?”

अपने जाल को झाड़ियों के नीचे छिपाकर वह भागने लगा. पर वहाँ से बचने का कोई रास्ता नहीं था. हताश होकर छिपने की जगह ढूँढ़ते हुए, उसे अचानक सुलगती हुआ आग दिखी जो शायद किसी धर्मात्मा ने वहाँ छोड़ी थी.

आग को देखकर मछुआरे के मन में तुरंत एक विचार आया और उसने सोचा, “मेरी तक़दीर मुझपर इससे अधिक मेहरबान नहीं हो सकती थी.” उसने फटाफट अपनी पगड़ी उतारी और अपनी बाँहों व माथे पर राख लगा ली. फिर आग के समक्ष बैठकर वह समाधि में मग्न किसी धर्मात्मा का ढोंग करने लगा.

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नौकर अचानक उस स्थान पर पहुँचे पर उसे कोई धर्मात्मा समझकर बिना कुछ कहे ही वहाँ से चले गए.
घर के मालिक ने नौकरों से पूछा, “क्या हुआ? तुम्हें चोर मिला?”

नौकरों ने उत्तर दिया, “नहीं सरकार! वह भाग गया. लेकिन बगीचे में हमें एक धर्मात्मा ध्यानस्थ मिले.”

मेरे बगीचे में धर्मात्मा! “मैं कितना भाग्यशाली हूँ. मुझे अभी उनके पास ले चलो” , मालिक बोला.

नौकर अपने मालिक को उस स्थान पर ले गए जहाँ मछुआरा तपस्या करने का ढोंग कर रहा था. उसके नज़दीक पहुँचने पर मालिक ने सबसे शांत रहने को कहा ताकि उस महान साधु की तपस्या में विघ्न न पड़े.
तपस्या करने का ढोंग कर रहे मछुआरे ने सोचा, “मैंने इन सबको मूर्ख बना दिया… यहाँ तक कि घर के मालिक को भी.”

अंततः मालिक और उसके नौकर वहाँ से चले गए. मछुआरे ने रात भर वहीं चुपचाप बैठकर सवेरे वहाँ से बचकर निकलने का निश्चय किया.
सवेरे जैसे ही वह जाने के लिए उठा तभी उसे एक युवा दम्पति अपने नवजात शिशु के साथ उस तरफ आते दिखे.fish7

मछुआरे को देखकर वह बोले, “हे महात्मा! आपके बारे में सुनकर हम आपका आशीर्वाद लेने आए हैं. कृपया हमारे बच्चे को आशीर्वाद दीजिए.”
नकली धर्मात्मा बोला, “भगवान् तुम्हारा भला करें.”

उस दम्पति के जाते ही मछुआरे ने लोगों का एक बड़ा झुंड अपनी ओर आते देखा. लोग उसका आशीर्वाद लेने आ रहे थे ओर उनके हाथ में नाना प्रकार का चढ़ावा था- जैसे कि फूल, मिठाई ओर चांदी की थाली भी.

लोगों का सम्मान व श्रद्धा देखकर मछुआरा द्रवित हो गया तथा उसने और ढोंग न करने का निश्चय किया. उस क्षण से वह वास्तव में भगवान् का भक्त बन गया. उसने सदा के लिए चोरी छोड़ दी और अपना शेष जीवन पूजा व ध्यान में व्यतीत किया.

सीख:
इस कहानी के चोर के समान अक्सर परिस्तिथियाँ हमें स्वयं में बदलाव लाने के लिए विवश करती हैं. प्रारम्भ में हम ढोंग करते हैं और कुछ समय तक मिथ्या जीवन जीने पर हम शीघ्र ही उस साँचे में स्वयं को ढाल लेते हैं.

Source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com

अनुवादक- अर्चना

 

श्री आदि शंकर के तीन अपराध

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आदर्श: सत्य
उप आदर्श: शाश्वत सत्य; मनसा, वाचा और कर्मणा में सामंजस्य

श्री श्री शंकर एक बार अपने शिष्यों के साथ काशी के श्री विश्वनाथ मंदिर पहुँचे. गंगा में स्नान करने के बाद वह सीधे मंदिर गए और भगवान् विश्वनाथ के समक्ष अपने तीन अपराधों के लिए क्षमादान की प्रार्थना करने लगे. उनके शिष्य चकित थे और अचरज में थे कि उनके आचार्य अपने किन अपराधों के लिए प्रायश्चित कर रहे होंगे.

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अपने आचार्य के तीन अपराधों को जानने की अभिलाषा से एक शिष्य ने श्री श्री शंकर से उन अपराधों के बारे में पूछा. श्री श्री शंकर ने उसे सविस्तार समझाया, “यद्यपि मेरा मानना है कि परम तत्व सर्वव्याप्त हैं और मैंने अपनी कई रचनाओं में ऐसा अभिव्यक्त भी किया है, पर फिर भी उनके दर्शन करने के लिए मैं काशी नगर आया हूँ मानो वह केवल काशी नगर में ही विद्यमान हैं. मैंने अपने कथन से भिन्न आचरण करने का अपराध किया है. यह मेरा पहला अपराध है.”

“तैत्तिरिय उपनिषद् में कहा गया है ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह:’ अर्थात जहाँ से वाणी लौट आती है और जिसे समझने में मन असमर्थ है. यद्यपि मैं जानता था कि परम तत्व विवेचन व शब्दों से परे हैं पर फिर भी ‘श्री काशी विश्वनाथ अष्टकम’ में मैंने adi4शब्दों द्वारा उनकी व्याख्या करने की चेष्टा की है. एक बार पुनः मैंने अपने उपदेश पर अमल न करने का अपराध किया है. यह मेरा दूसरा अपराध है.”

“अब तीसरा अपराध- अपने ‘निर्वाण षट्कम’ में मैंने स्पष्ट लिखा है; न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम न मंत्रो न तीर्थं न वेदाः न यज्ञा:, अहं भोजनं नैव भौज्यं न भोक्ता चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम : मैं पुण्य, पाप, सुख व दुःख से विलग हूँ. मुझे न तो पवित्र मन्त्रों की आवश्यकता है, न ही तीर्थयात्रा की. मुझे उपनिषदों, संस्कारों या यज्ञ की भी आवश्यकता नहीं है. न मैं भोजन हूँ, न ही भोग का अनुभव और न ही भोक्ता हूँ. मैं शुद्ध चेतना हूँ, अनादि शिव हूँ. पर इन सब के बावजूद मैं यहाँ प्रभु के सामने खड़ा होकर अपने अपराधों के प्रायश्चित की प्रार्थना कर रहा हूँ. यह मेरा तीसरा अपराध है.”

 

सीख:

श्री श्री शंकर के जीवन की यह उपकथा हमारे विचारों, शब्दों व कार्यों में सामंजस्य की महत्ता प्रकाशित करती है. यदि हममें परम तत्व को हासिल करने की उत्सुकता है तो हमें मनसा, वाचा और कर्मणा में तालमेल लाना ही होगा. हमारे विचार कितने भी नेक क्यों न हों परन्तु संसार हमारे प्रदर्शन को महत्त्व देता है. लेकिन हमारा प्रदर्शन कितना भी अच्छा क्यों न हो, परम तत्व हमारे विचारों को महत्त्व देते हैं. कहा जाता है, मनस एकम, वाचस एकम, कर्मण एकम महात्मनं, मनस अन्यथा, वाचस अन्यथा, कर्मण अन्यथा दुरात्मनं. हमें अपने जीवन में मनसा वाचा कर्मणा के सम्पूर्ण तालमेल का निरंतर अभ्यास करना चाहिए.

 

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Source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com

अनुवादक- अर्चना

 

विश्वास की सीमा

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     आदर्श : प्रेम
उप आदर्श: विश्वास, भरोसा

वह विमान में एक लम्बी उड़ान पर था. यात्रा के दौरान, आने वाली परेशानियों की पहली चेतावनी तब मिली जब विमान में संकेत प्रकाशित हुआ: “कृपया अपनी कुर्सी की पेटी बाँध लें.”

फिर कुछ समय के बाद एक स्थिर आवाज़ बोली, “मौसम खराब होने के कारण हम कुछ समय के लिए पेय पदार्थ देने की सेवा बंद कर रहे हैं. कृपया सुनिश्चित कर लें कि आपकी कुर्सी की पेटी बँधी हुई है.”

जैसे उसने विमान में अपने इर्द-गिर्द नज़र दौड़ाई, उसे अहसास हुआ कि अधिकतर यात्री चिंतित व भयभीत थे. तभी उद्घोषक की आवाज़ आई, “हमें खेद है कि इस समय हम भोजन की सेवा भी स्थगित कर रहे हैं. मौसम काफ़ी खराब है.”

और फिर अपेक्षित तूफ़ान उमड़ पड़ा. विमान के इंजन की आवाज़ के बादजूद बिजली की डरावनी कड़कड़ाहट सुनाई दे रही थी. बिजली चमकने से अंधकारमय आसमान प्रकाशित हो रहा था और पलक झपकते ही ऐसा प्रतीत होने लगा मानो विमान और उसके यात्रियों का अंत निकट था. एक क्षण प्रचंड हवा का प्रवाह विमान को ऊपर उठाता था और दूसरे ही क्षण इस प्रकार गिराता था मानो विमान ध्वस्त होने वाला हो.

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उस व्यक्ति ने स्वीकार किया कि अपने सहयात्रियों की तरह वह भी भयभीत व परेशान था. उसने कहा, “जब मैंने अपने आसपास देखा तो पाया कि लगभग सभी यात्री घबराए और डरे हुए थे. कुछ अपनी सुरक्षा के लिए प्रार्थना कर रहे थे.

भविष्य निर्जन व निराशाजनक प्रतीत हो रहा था और कई यात्री अचम्भे व संदेह में थे यदि वह तूफ़ान का प्रकोप झेल पायेंगें.

तभी अचानक मेरी नज़र एक लड़की पर पड़ी जो तूफ़ान से ज़रा भी प्रभावित नहीं थी. उसने बहुत सहजता से अपने पैर कुर्सी पर रखे हुए थे और एक किताब पढ़ रही थी.

उसके छोटे से संसार में सब कुछ शांत व स्थिर था. कभी वह अपनी आँखें बंद कर लेती थी तो कभी पुनः किताब पढ़ने लगती थी; फिर कभी अपने पैर नीचे कर के सीधे कर लेती थी, पर चिंता या भय का कहीं नामोनिशान नहीं था. जब विमान प्रचंड तूफ़ान के कारण बुरी तरह डाँवाडोल हो रहा था, भयानक उग्रता से अचानक ऊपर उठने या नीचे गिरने के कारण इधर-उधर झटके खा रहा था; जब प्रायः सभी यात्री बुरी तरह डरे हुए थे, वह अनोखा बच्चा पूरी तरह से भयरहित व शांतचित था.

उस व्यक्ति को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. अंततः जब विमान अपने गंतव्य स्थान पर उतरा और सभी यात्री झटपट विमान से उतरने में लगे हुए थे, वह उस बच्चे, जिसे वह अचंभित होकर देख रहा था, से बात करने के लिए रूक गया.

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बातों-बातों में उसने भयानक तूफ़ान और विमान के अनियंत्रित ‘उतार-चढ़ाव’ के बारे में बात करते हुए उससे पूछा कि वह भयभीत क्यों नहीं थी? उस मासूम बच्चे ने उत्तर दिया,
“महाशय, इस विमान के चालक मेरे पिता हैं और वह मुझे घर ले जा रहे हैं.”

सीख:
जब हमें स्वयं पर पूरा भरोसा होता है और हमारा आत्मविश्वास अटल होता है, तब हम हर कार्य शांत रहकर सफलतापूर्वक करते हैं. विश्वास और निष्ठा सदा सफल होते हैं. कहानी में बच्ची सम्पूर्ण रूप से आश्वस्त थी कि उसके पिता उसे सुरक्षित रूप से घर पहुँचाएँगे. ठीक इसी प्रकार हमारे मालिक, प्रभु भी हमसे बेहद प्रेम करते हैं. यदि हमें अपने प्रभु में विश्वास व निष्ठा है तो हममें आत्मविश्वास विकसित होता है जो हमें सांसारिक यात्रा में सफल बनाता है.

source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com

अनुवादक-अर्चना

 

केवल समय ही प्रेम की कदर करेगा

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आदर्श: प्रेम

कई वर्ष पूर्व सभी भावनाएँ व जज़्बाद छुट्टी मनाने एक तटीय टापू पर एकत्रित हुए. सभी आनंदमय समय व्यतीत कर रहे थे. एक दिन अचानक आने वाले तूफ़ान की घोषणा हुई. मौसम विभाग से घोषणा सुनकर सभी जल्द से जल्द टापू से निकलने की चेष्टा करने लगे.

हर तरफ यथेष्ट तहलका मच गया और सभी टापू से बाहर निकलने के लिए अपनी नौकाओं की ओर भागने लगे; सारे कोलाहल के बावजूद विचित्र बात यह थी कि केवल प्रेम को कोई जल्दी नहीं थी. बहुत सारा अधूरा काम शेष बचा हुआ था. सारा काम समाप्त होने पर जब प्रेम के जाने का समय हुआ तब उसे अहसास हुआ कि उसके लिए कोई भी नाव नहीं बची थी. फिर भी आश्वासन रखकर उसने अपने चारों ओर देखा.

तभी सफलता अपनी उत्कृष्ट नाव में वहाँ से गुज़री. प्रेम ने उससे निवेदन किया, “कृपया मुझे अपनी नाव में ले लो.” परन्तु सफलता बोली, “मेरी नाव सोने और अन्य बेशकीमती जवाहरतों से भरी हुई है, तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है.”

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फिर अभिमान अपनी ख़ूबसूरत नाव में आया. प्रेम ने उससे पूछा, “अभिमान, क्या तुम मुझे अपनी नाव में लोगे? कृपया मेरी मदद करो.” अभिमान बोला, “नहीं, तुम्हारे पैर मैले हैं और मैं अपनी नाव गन्दी नहीं करना चाहता.”

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कुछ समय बाद शोक वहाँ से गुज़रा. प्रेम ने उसे भी मदद के लिए पुकारा पर शोक ने जवाब दिया, “मैं बहुत उदास हूँ. मैं एकांत में रहना चाहता हूँ.”

शोक की नाव वहाँ से गुजरने के जल्द बाद ख़ुशी वहाँ से गुज़री. प्रेम ने उसे भी मदद के लिए पूछा पर ख़ुशी अपने आप में इतनी प्रसन्न थी कि उसे किसी और की परवाह ही नहीं थी.

तभी अचानक कहीं से किसी ने आवाज़ दी, “प्रेम आओ, मैं तुम्हें अपने साथ लेकर चलूँगा.” प्रेम ने अपने इस रक्षक को पहचाना नहीं पर फिर भी कृतज्ञतापूर्वक झटपट नाव में बैठ गया.

सभी के सकुशल किनारे पर पहुँच जाने पर प्रेम भी अंत में नदी तट पर पहुँचा. नाव से उतरने के बाद वह ज्ञान से मिला. प्रेम ने पूछा, “ज्ञान, क्या तुम्हें पता है कि अन्य सभी द्वारा ठुकराए जाने पर किसने मेरी मदद की थी?” ज्ञान मुस्कुराया, “वह समय था क्योंकि केवल समय को ही तुम्हारा असली मोल और क्षमता मालूम है. प्रिय प्रेम, केवल तुम ही शान्ति व ख़ुशी ला सकते हो.”

सीख:
इस कहानी का सन्देश यह है कि जब हम संपन्न होते हैं तब हम प्रेम को नाकाबिल समझते हैं. जब हम स्वयं को महत्त्वपूर्ण समझते हैं तो हम प्रेम को सराहते नहीं हैं. सुख और दुःख में हम प्रेम पर ध्यान नहीं देते हैं. परन्तु समय के साथ हम प्रेम का वास्तविक महत्त्व समझते हैं. हमें अपने जीवन में प्रतिदिन प्रेम संजोकर सबके साथ बाँटना चाहिए.

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source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com

अनुवादक- अर्चना

 

राजा हरिश्चंद्र- सच्चाई के अभिव्यक्ति

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आदर्श: सत्य
उप आदर्श: ईमानदारी

हरिश्चंद्र, त्रिशंकु के पुत्र व राम के पूर्वज थे. उन्होंने अपनी पत्नी, तारामती और पुत्र रोहिताश्व के साथ अयोध्या पर राज्य किया था. वह एक न्यायी व कृपालु राजा थे और उनके राजकाल में उनकी प्रजा ने खुशहाल व शांतिमय जीवन व्यतीत किया था.

हरिश्चंद्र ने बचपन में ही सत्य की महत्ता सीख ली थी और उन्होंने कभी झूठ न बोलने तथा सदा अपना वादा निभाने का निश्चय किया था. समय के साथ वह अपनी सत्यवादिता, ईमानदारी और समेकता के लिए प्रसिद्ध हो गए. उनकी ख़्याति स्वर्ग में देवताओं तक पहुँची और उन्होंने हरिश्चंद्र को परखने का फैसला किया. हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने के लिए ऋषि विश्वामित्र का चयन किया गया और तदनुसार ऋषि अपने कार्य में लग गए.

अपने कार्य में सफल होने के लिए विश्वामित्र ने हर संभव प्रयास किया जिससे कि हरिश्चंद्र झूठ बोलें या अपने वादे से मुकर जाएं पर उनकी सभी कोशिशें व्यर्थ साबित हुईं. अपनी यथायोग्य प्रतिष्ठा के अनुरूप, हरिश्चंद्र अपने आदर्शों के प्रति पूर्णतया समर्पित थे.

अंततः विश्वामित्र ने परिस्थितियों का इस प्रकार हेर-फेर किया कि हरिश्चंद्र अपना राज्य व अपनी संपत्ति, ऋषि को देने के लिए मजबूर हो गए. इस प्रकार की धोखेबाजी के बावजूद भी हरिश्चंद्र ने मुस्कुराते हुए अपने राज्य का त्याग कर दिया और अपनी पत्नी व पुत्र के साथ जंगल की ओर निकल पड़े. हरिश्चंद्र की त्यागशीलता पर ऋषि अवाक थे पर राजा को उकसाने की अपनी अंतिम कोशिश में विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र से दक्षिणा माँगी.

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राजा अपना सब कुछ दे चुके थे और अब उनके पास दक्षिणा में देने के लिए कुछ शेष नहीं बचा था. पर वह एक ब्राह्मण को दक्षिणा न देने का पाप नहीं करना चाहते थे और इस कारण उन्होंने विश्वामित्र से कुछ समय की मोहलत माँगी. राजा बोले, “हे ऋषि, इस समय मेरे पास मेरा अपना कुछ भी नहीं है. आपकी दक्षिणा चुकाने के लिए कृपया मुझे १ महीने का समय दीजिये.” राजा का विनम्र निवेदन सुनकर ऋषि ने उन्हें १ महीने की अनुग्रह अवधि दे दी.

ऋषि को दक्षिणा देने के लिए धन कमाने हेतु राजा देशभर में इधर-उधर भटके पर उन्हें हर जगह असफलता ही मिली. अंततः वह काशी नामक शहर पहुँचे जो आजकल वाराणसी के नाम से जाना जाता है.
काशी एक ऐसा शहर था जहाँ हर जगह से भिन्न प्रकार के लोग आते थे. ज्ञानी पुरुष और अधिक शिक्षा अर्जित करने आते थे, भक्ति व निष्ठा से पूर्ण अनेकों तीर्थ यात्री आते थे और इस पवित्र शहर में मरने के बाद स्वर्ग हासिल करने की आशा में भी अनेक वृद्ध व्यक्ति यहाँ आते थे. परन्तु ऐसे जनसंकुल शहर में होने के बावजूद भी वह रोजगार ढूँढ़ने में असफल थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो भगवान् भी हरिश्चंद्र से रुष्ठ थे.

जैसे जैसे अनुग्रह अवधि का अंत समीप आने लगा वैसे वैसे हरिश्चंद्र की परेशानी बढ़ने लगी. अपने वादे का उल्लंघन करना उन्हें गवारा नहीं था और अपने वादे का सम्मान रखने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा था. हरिश्चंद्र की पत्नी, तारामती भी उनके समान ही सदाचारी थी. अपने पति को परेशान देखकर आखिरकार उसने एक सुझाव रखा. वह बोली, “प्रिय स्वामी, कुछ ही दिनों में ऋषि अपनी दक्षिणा माँगने आ जाएंगे. अब तक हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाए हैं. मेरे पास एक सुझाव है जो हालांकि अनुचित प्रतीत होता है परन्तु हमारे पास शायद यही एकमात्र रास्ता है. इस शहर में अमीर लोगों के लिए काम करने के वास्ते गुलामों की बहुत आवश्यकता है. कृपया मुझे बेच दीजिए और उन पैसों से ऋषि का भुगतान कर दीजिए. बाद में जब आपके पास पर्याप्त पैसे होंगे तब आप मुझे वापस खरीद सकते हैं.”king1
अपनी पत्नी का सुझाव सुनकर हरिश्चंद्र हक्के-बक्के रह गए और कड़ा विरोध करते हुए बोले, “अपनी पत्नी को बेच दूँ? उसे जिसने हर कठिनाई में मेरा साथ दिया है! असंभव!!” परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया और वह पैसे कमाने में असफल रहे उन्हें अपनी पत्नी की बात से सहमत होना पड़ा और पत्नी को बेचने, गुलामों के बाज़ार में गए.

वहाँ उन्होंने अपनी पत्नी को सबसे अधिक बोली लगाने वाले एक वृद्ध ब्राह्मण को बेच दिया. पत्नी के साथ नन्हा बालक भी होने के कारण वह ब्राह्मण और अधिक पैसे देने के लिए राज़ी हो गया. लाचार हरिश्चंद्र ने ब्राह्मण से पैसे लिए और पत्नी व बच्चे को ब्राह्मण के साथ भेज दिया. उसी क्षण विश्वामित्र वहाँ आये और हरिश्चंद्र से पुनः दक्षिणा की माँग की. ब्राह्मण से मिले सारे पैसे हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को सौप दिए पर फिर भी वह संतुष्ट नहीं हुए और बोले, “मेरी जैसी क्षमता रखने वाले ऋषि को क्या तुम ऐसी दक्षिणा दोगे? मैं ऐसा क्षुद्र पारितोषिक स्वीकार नहीं कर सकता.”

हरिश्चंद्र कोई और उपाय सोच ही रहे थे कि तभी वहाँ एक चांडाल आया. चांडाल नीची जाती के लोग होते थे जिन्हें केवल शमशान घाट पर ही रहने और काम करने की अनुमति होती थी. चांडाल ने हरिश्चंद्र से कहा कि वह एक हृष्ट-पृष्ट व्यक्ति की तलाश में है जो उसके लिए काम कर सके. चांडाल की बात सुनकर विश्वामित्र तुरंत हरिश्चंद्र की ओर देखकर बोले, “तुम मेरा भुगतान स्वयं को इस व्यक्ति को बेचकर क्यों नहीं कर देते?”king2

हरिश्चंद्र स्तंभित थे. चांडालों को अछूत माना जाता था. जहाँ अछूतों को छूना भी निषिद्ध था वहाँ एक राजा को उसके लिए काम करना पड़ रहा था. हरिश्चंद्र मन ही मन सोचने लगे कि एक राजा चांडाल के भी पद से नीचे कैसे गिर सकता है! पर तभी उन्हें अहसास हुआ कि उनके पास और कोई चारा नहीं था. अतः वह चांडाल के लिए काम करने को तैयार हो गए. चांडाल से पैसे मिलने पर जब हरिश्चंद्र ने ऋषि को पैसे दिए तब वह प्रसन्न व संतुष्ट हुए और उन्हें चांडाल से साथ छोड़कर वहाँ से चले गए.

चांडाल ने हरिश्चंद्र से शमशान घाट पर काम करवाना शुरू कर दिया. वह हरिश्चंद्र को शव जलाना, भुगतान माँगना और दाह संस्कार से सम्बंधित अन्य कार्य सिखाने लगा. हरिश्चंद्र शमशान घाट पर रहने लगे और हालांकि वह खुश नहीं थे पर फिर भी अपना काम निष्ठापूर्वक करते थे.

अपनी पत्नी व पुत्र को लेकर वह निरंतर परेशान रहते थे और सोचते थे, “वह दोनों किस अवस्था में होंगे? उन्हें तो यह भी नहीं मालूम है कि मैं स्वयं यहाँ एक दास हूँ. ”

समय के साथ हरिश्चंद्र को अपने काम की आदत पड़ गई. उसकी पत्नी व पुत्र भी ब्राह्मण के घर काम करने से दरिद्रता और कठोर परिश्रमी जीवन के अभयस्त हो गए. एक दिन लड़का बगीचे से फूल लाने गया पर उसे सांप ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई. बेटे को मृत देख, तारामती बेहद परेशान व शोकाकुल थी. काफी समय तक रोने के बाद वह स्वयं को अपने पुत्र के दाह-संस्कार के लिए तैयार कर पाई. बच्चे को बाँहों में लिए वह शमशान घाट लेकर आई.

शमशान घाट पर हरिश्चंद्र काम पर थे और उन्होंने एक महिला को बच्चा बाहों में लिए आते देखा. दरिद्रता व कठिन परिस्थितियों ने सबको इतना बदल दिया था कि दोनों ने एक दूसरे को नहीं पहचाना. नियमानुसार हरिश्चंद्र ने दाह-संस्कार का भुगतान माँगा. तारामती रोने लगी और बोली, “मैं एक दास हूँ और मेरे पास मेरे शरीर पर पहने कपड़ों के अलावा और कुछ भी नहीं है. मेरी एक मात्र संतान भी मर चुकी है. मैं आपको क्या दे सकती हूँ? ” महिला की दयनीय अवस्था देखकर हरिश्चंद्र को कष्ट तो बहुत हुआ पर दाह-संस्कार का भुगतान लेने के अपने कर्त्तव्य पर वह अडिग थे.

तभी हरिश्चंद्र की निगाह महिला के मंगलसूत्र पर पड़ी जो उसके विवाह का प्रतीक था. वह बोले, “अरे महिला! तुमने झूठ क्यों बोला कि तुम्हारे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है? दाह-संस्कार के भुगतान के बदले तुम मुझे अपना यह मंगलसूत्र दे सकती हो?”
तारामती आश्चर्यचकित थी. उसका मंगलसूत्र अनोखा था क्योंकि उसे केवल उसका पति ही देख सकता था. हरिश्चंद्र की बात सुनकर वह अपनी दुर्दशा पर रोने लगी और बोली, “हे नाथ, हमने अवश्य ही फिछले जीवनकालों में अनेकों कुकर्म किए होंगे जो आज हम इस दशा में हैं. मैं आपकी पत्नी हूँ लेकिन आप मुझे पहचानते नहीं. यह हमारा पुत्र है जो एक राजकुमार है- उसकी मृत्यु हो गई है पर वह अपने अंतिम संस्कार से वंचित है.”

अपनी पत्नी के कथन सुनकर हरिश्चंद्र ने उसे पहचान लिया और अपने प्रिय पुत्र और अपनी दशा पर रोने लगे. परन्तु इस सब के बावजूद वह अपने कर्त्तव्य पर अडिग थे और बोले, “दाह-संस्कार का शुल्क वसूल करना मेरा धर्म है और चाहे कुछ भी हो जाए मैं अपने कर्त्तव्य से कभी नहीं हटूँगा.”

तारामती भी अपने पति के समान धार्मिक व सच्चरित्र थी. वह बोली, “मेरे पास सिर्फ मेरे शरीर पर पहने कपड़े हैं. क्या आप इनमें से आधे कपड़े स्वीकार करके हमारे बच्चे का दाह-संस्कार करेंगे?” जब हरिश्चंद्र सहमत हो गए और वह अपने कपड़े फाड़ने लगी, उसी क्षण स्वर्ग से हर्षध्वनि उठी.

देवताओं ने दम्पति पर फूल बरसाए और विश्वामित्र साक्षात प्रकट होकर बोले, “हे राजन! सच्चाई और ईमानदारी के प्रति तुम्हारी प्रतिबद्धता की परीक्षा लेने के लिए देवताओं ने यह सारी मुसीबतें उत्पन्न कीं थीं. इन सभी परीक्षाओं में तुम न केवल विजयी साबित हुए हो बल्कि अपनी गुणवत्ता के कारण तुमने स्वर्ग में भी जगह हासिल कर ली है. तुम अपनी पत्नी व पुत्र के साथ अपने राज्य लौट सकते हो और अंतिम समय तक शासन कर सकते हो.”
ऋषि के इस प्रकार बोलते ही चिता पर मृत पड़ा नन्हा बालक उठाकर बैठ गया और आँखें मलने लगा मानो अभी नींद से उठा हो.

अपने पुत्र को जीवित देखकर हरिश्चंद्र बहुत प्रसन्न थे और उन्हें इस बात की अत्यधिक ख़ुशी थी कि उनके जीवन की परेशानियों का अंत होने वाला है. पर एक क्षण रूककर वह बोले, “हे ऋषि, हो सकता है कि यह सारी मुसीबतें आपने मेरी परीक्षा लेने के लिए उत्पन्न कीं थीं परन्तु सत्य यह है कि मैं एक चांडाल का दास हूँ और मेरी पत्नी एक ब्राह्मण की दास है. जब तक हम दास हैं तब तक हम कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकते.”

हरिश्चंद्र की बात सुनकर ऋषि बहुत खुश हुए और बोले, ” हरिश्चंद्र, तुम वास्तव में अब तक के सर्वोच्च सत्यवादी और ईमानदार व्यक्ति हो. उधर देखो- वह रहे चांडाल और ब्राह्मण! देखो वह कौन हैं?” king3चांडाल और ब्राह्मण वास्तव में उन दोनों की ओर ही आ रहे थे पर एकाएक उनके रूप बदल गए और जैसे वह राजा के और करीब आए, उन्हें अहसास हुआ कि ब्राह्मण, इन्द्र थे और चांडाल, धर्म(यम) थे. दोनों बोले, ” हरिश्चंद्र, तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए हमने यह रूप धारण किए थे. कृपया हमें क्षमा करना और स्वयं को मुक्त समझो. जाओ और शांतचित्त से अपने राज्य पर शासन करो.

हरिश्चंद्र अयोध्या वापस लौट गए और कुछ वर्षों तक न्यायसंगत रूप से शासन किया. समय आने पर उन्होंने अपने साम्राज्य की बागडोर रोहिताश्व को सौंप दी और स्वर्गलोक सिधार गए.

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सीख:
हरिश्चंद्र का नाम सच्चाई व ईमानदारी का पर्यायवाची बन गया है. सत्यवादी राजा की कहानी ने अनेकों को प्रेरित किया है और आज भी लोगों को निरंतर विभोर करती है. राजा वास्तव में अमर है. सत्यता कार्यरत रहने योग्य सर्वोच्च कोटि का गुण है. विभिन्न कठिनाईओं के बावजूद जो सदा सत्य और ईमानदारी के मार्ग पर चलते हैं, वह अवश्य ही विजयी होते हैं और सदा याद किए जाते हैं.

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अनुवादक-अर्चना

ज्ञानी पंडित

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आदर्श: सत्य
उप आदर्श: अभ्यास

एक दिन बहुत सारे लोग एक नाव में बैठकर नदी पार कर रहे थे. उनमें से एक व्यक्ति ज्ञानी पंडित था. उस पंडित ने समय व्यतीत करने तथा अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने के लिए एक सह यात्री के साथ हिन्दू शास्त्रों पर बातचीत करने का निश्चय किया.

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अतएव वह एक यात्री की तरफ मुड़कर बोला, “मेरे अनुमान से तुमने उपनिषद् तो पढ़ें ही होंगे? ”

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यात्री ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “नहीं महाशय! मैंने उपनिषद् नहीं पढ़े हैं.”
पंडित ने आश्चर्यचकित होकर कहा, “अच्छा! तुम्हारे जीवन का तो एक चौथाई भाग बर्बाद हो चुका है.”

“पर तुमने शास्त्रों का अध्ययन तो किया ही होगा! ” पंडित ने आगे पूछा.

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“नहीं महाशय, मैंने शास्त्रों का भी अध्ययन नहीं किया है” , यात्री ने उत्तर दिया.
यात्री का जवाब सुनकर पंडित सगर्व बोला, “फिर तो तुम्हारी आधी ज़िन्दगी बर्बाद हो चुकी है.”

“और हिन्दू दर्शनशास्त्र के ६ सिद्धांत? ” बौद्धिक बातचीत शुरू करने के अपने अंतिम प्रयास में पंडित ने पूछा.

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“महाशय! क्षमा कीजिएगा, मैंने तो उनके बारे में सुना भी नहीं है!” यात्री बोला.
“उनके बारे में सुना भी नहीं है? फिर तो मित्रवर, तुम्हारी तीन चौथाई ज़िन्दगी बर्बाद है.”

पंडित के ऐसा बोलते ही अचानक बढ़ती हुई ज़ोरदार लहरों में नाव डगमगाने लगी.boat6

नाविक चिल्लाया, “तूफ़ान आने वाला है और मैं नाव को नियंत्रित नहीं कर पा रहा हूँ. नाव उलटने वाली है. सुरक्षा के लिए सभी लोग नाव पर से पानी में कूद जायें और तैरकर नदी तट तक पहुँच जायें.”

पंडित को व्याकुल व भयभीत देखकर सह यात्री ने पूछा, “आपको तैरना नहीं आता है?”
पंडित शोक करते हुए बोला, “नहीं, मैंने कभी तैरना सीखा ही नहीं.”
“आपने तैरना नहीं सीखा! फिर तो पंडितजी, आपकी पूरी ज़िन्दगी बर्बाद है.” इस प्रकार पंडित का मज़ाक उड़ाते हुए वह यात्री डूबती नाव से पानी में कूद गया.

सीख:

केवल ज्ञान हासिल करना ही पर्याप्त नहीं है. उसका व्यवहारिक प्रयोग भी अनिवार्य है. कोई कितना भी सुशिक्षित हो और उसने कितना भी ज्ञान उपार्जित क्यों न किया हो पर यदि समय पर वह काम न आए तो ऐसा ज्ञान व्यर्थ है.

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एक चोर का बदलाव

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आदर्श: सच्चाई, उचित आचरण
उप आदर्श: ईमानदारी

एक चोर चोरी की तलाश में था पर उसके हाथ कुछ विशेष व ठोस नहीं लग रहा था. मायूस होकर वह एक मंदिर पहुँचा जहाँ पुजारी एकत्रित लोगों को सच्चाई के विषय में भाषण दे रहा था. कुछ देर भाषण सुनने के बाद चोर को भाषण अच्छा लगने लगा और वह सच्चाई के सिद्धांत को पूरे ध्यान से एकाग्रचित होकर सुनने लगा. कार्यक्रम समाप्त होने पर सभी घर चले गए लेकिन चोर वहीँ बैठा रहा.

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स्वयं को वहाँ अकेले पाकर चोर को मन ही मन चिंता होने लगी कि पुजारी कहीं यह न समझे कि वह मंदिर में कुछ गलत करने आया है. उसने पुजारी से कहा, “वैसे तो यहाँ मेरा कोई काम नहीं है पर मैं आपको यह बताना चाहता हूँ कि सच्चाई की महत्ता पर आपने बहुत ही गूढ़ भाषण दिया. मुझे आपका भाषण बहुत अच्छा लगा.” सत्यता के प्रभाव को लेकर चोर के मन में काफ़ी विवाद व प्रश्न थे. अतः उसने पुजारी से पूछा कि वह अपनी झूठ बोलने की आदत पर कैसे काबू पा सकता है. पुजारी ने उसे समझाया वह चाहे कहीं भी हो और उसने चाहे कैसी भी चोरी की हो पर सच्चाई के बल पर वह सदा सुरक्षित और निर्भय रहेगा. पुजारी ने चोर को विश्वास दिलाया कि चोरी करते हुए भी वह कामयाब हो सकता है. पुजारी की बातों से प्रोत्साहित होकर चोर ने संकल्प किया कि अपनी व्यवहारिक ज़िन्दगी में वह पुजारी द्वारा दी हिदायत का सदा पालन करेगा. चोर ने स्वयं से वादा किया कि उस दिन से वह हर परिस्थिति में सच्चाई व ईमानदारी के पथ पर चलेगा. उसने उसी क्षण से हमेशा सच बोलने और असलियत का साथ देने का फैसला किया.

सदा सच बोलने का संकल्प लेकर जैसे ही चोर मंदिर से बाहर निकला तभी उसकी मुलाकात एक व्यक्ति से हुई. यह व्यक्ति वास्तव में राजा था जो एक साधारण नागरिक के भेष में अपने राज्य का मुआयना करने निकला था.thief2 चोर से मिलने पर उस व्यक्ति ने चोर से पूछा कि वह कौन है. यद्यपि अपनी असलियत बताने में चोर को हिचकिचाहट हो रही थी पर फिर सदा सत्य बोलने की अपनी प्रतिज्ञा का स्मरण करके चोर ने बताया कि वह एक चोर है. वह व्यक्ति बेहद खुश हुआ और उसने कहा कि वह भी एक चोर ही है. दोनों व्यक्ति आपस में गले मिले और एक दूसरे से हाथ मिलाकर जल्द ही दोस्त बन गए. नए चोर ने कुछ बहुमूल्य वस्तुएँ चुराने का सुझाव दिया और कहा कि उसे ठीक मालूम है कि ऐसे अनमोल रत्न कहाँ मिलेंगें. वह उसे एक गुप्त रास्ते से ले गया और दोनों एक शानदार राजभवन के सामने पहुँच गए. वहाँ से वह नया चोर उसे राजवंशी राजकोष ले गया और उससे तिजोरी तोड़ने को कहा. तिजोरी तोड़ने पर उन्हें उसमें पाँच बेशकीमती हीरे मिले. thief4नए चोर ने सलाह दी कि वह दोनों चार हीरे ही चुरायें ताकि दोनों बराबर का हिस्सा कर पाए. पाँचवे हीरे को आधा करने से वह हीरा मूल्यहीन हो जाएगा. दोनों ने सहमत होकर तिजोरी में से चार हीरे निकाले और एक हीरा राजकोष में ही छोड़ दिया. लूट का माल आपस में बाँट कर दोनों अपने-अपने रास्ते चले गए.

अगले दिन जब राजमहल का कार्यालय खुला तो अधिकारियों ने राजवंशी तिजोरी खुली पाई. जांच करने पर शाही कोषाध्यक्ष ने पाया कि तिजोरी में से चार हीरे ग़ायब थे. thief5उपयुक्त व सटीक अवसर देखकर उसने बचा हुआ हीरा अपनी जेब में डाल लिया और राजा को बतलाया कि राजकोष के पाँचों हीरे चोरी हो गए हैं. राजा ने चौकीदारों को आज्ञा दी कि चोर को पकड़कर राजभवन लेकर आएँ. सिपाहियों ने चोर को ढूँढ़कर महाराज के सामने प्रस्तुत किया. राजा ने चोर को ग़ौर से देखा और बोला, “तो तुम ही वह चोर हो? तुमने क्या चुराया है.”

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चोर ने उत्तर दिया, “मैं झूठ नहीं बोल सकता इसलिए आपको बतला रहा हूँ कि मैंने ही अपने एक दोस्त के साथ मिलकर आपके राजकोष से हीरे चुराए हैं.”
राजा ने पूछा, “तुम दोनों ने कितने हीरे चुराए थे?”
“हमने चार हीरे चुराए थे. दो-दो दोनों के लिए. चूँकि हम पाँचवे हीरे को तोड़ नहीं सकते थे इसलिए हमने उसे तिजोरी में ही छोड़ दिया था.”
राजा ने फिर कोषाध्यक्ष से पूछा, “कितने हीरे ग़ायब हैं? ”
“सभी पाँच, जनाहपनाह.”

राजा तुरंत सारी कहानी समझ गया और उसने कोषाध्यक्ष को नौकरी से निकालकर चोर को उसकी सत्यवादी के लिए राजमहल का नया कोषाध्यक्ष नियुक्त कर लिया.

सदा सच बोलने की आदत विकसित करने पर उचित रूप से पुरस्कृत होने से प्रोत्साहित होने पर चोर ने शीघ्र ही अन्य सभी बुरी आदतों का भी त्याग कर दिया. दृढ़ता और पूर्ण विश्वास के साथ व्यवहार में सकारात्मक बदलाव लाने से हम अपनी बुरी आदतों का त्यागकर स्वयं में सुधार ला सकते हैं.

सीख:
हमें दूसरों द्वारा किए गलत व स्वयं द्वारा की गई अच्छाई को भुला देना चाहिए. अच्छा कार्य करने से नकारात्मक भाव में कमी आती है. अच्छी आदतें बुराई को निकाल बाहर करती हैं.

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सेवानिवृत्त समुद्री कप्तान

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आदर्श: उचित आचरण
उप आदर्श: विश्वास, कर्तव्य भाव, विचारों में स्पष्टता

यह कहानी एक समुद्री कप्तान की है जो कार्य से निवृत्त हो चुका था. अब वह एक दिवसीय यात्रा करने वाले पर्यटकों को नाव में शैट्लैंड द्वीप पर ले जाया करता था.

ऐसी एक यात्रा के दौरान उसकी नाव युवकों से भरी हुई थी. यात्रा शुरू होने से पहले वृद्ध कप्तान को प्रार्थना करते देख सभी यात्री उस पर हँसने लगे क्योंकि उस समय समुद्र शांत था एवं आसमान साफ़ और स्पष्ट था.

मगर यात्रा शुरू होने के कुछ समय बाद ही अचानक घने बादल छा गए. शीघ्र ही काले व घने बादलों ने भयंकर तूफ़ान का रूप ले लिया और नाव हिंसात्मक रूप से डगमगाने लगी. भयभीत यात्री कप्तान के पास आए और उनके साथ प्रार्थना में शामिल होने के लिए उससे आग्रह करने लगे.

कप्तान ने उत्तर दिया, ” मैं निश्चलता व स्थिरता में प्रार्थना करता हूँ. कठिनाई व मुसीबत के समय मैं अपनी नाव पर ध्यान देता हूँ.”

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सीख:

अपने जीवन के शांत व स्थिर समय में यदि हम भगवान् को नहीं पा सकते तो प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने पर ईश्वर को पाना असंभव है. संभवतः ऐसे में हम घबराये हुए होंगें. लेकिन निश्चल लम्हों में यदि हम प्रभु की तलाश और उन पर विश्वास करना सीख लेंगें तो कठिनाई का सामना करने पर हम निस्संदेह ही उन्हें ढूँढ़ लेंगें.

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एक मरते हुए व्यक्ति की चार पत्नियाँ

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आदर्श: सत्य
उप आदर्श: आध्यात्मिक रूप से सशक्त होना, अपनी वास्तविकता का अहसास होना

एक व्यक्ति की चार पत्नियाँ थीं. वह अपनी चौथी पत्नी से सबसे अधिक प्रेम करता था और उसके लिए सबसे अच्छी पोशाक खरीदता था. अपनी चौथी पत्नी के लिए वह सबसे सुन्दर और मनमोहक आभूषण खरीदता था और अपना सारा समय उसे रिझाने में व्यतीत करता था. कुल मिलाकर उसकी पत्नी उससे प्रेम करती थी और वह अपनी पत्नी से प्यार करता था.

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वह अपनी तीसरी पत्नी से भी प्रेम करता था. तीसरी पत्नी भी उसे प्रिय थी और वह उसकी भी हर इच्छा पूरी करता था. यह तीसरी पत्नी उसकी ज़िन्दगी नियंत्रित करती थी.

वह अपनी दूसरी पत्नी से भी प्रेम करता था. उसपर उसे पूरा विश्वास था और वह उससे अपनी हर व्यक्तिगत चीज़ के बारे में बात करता था. अपने जीवन के विषय में वह सदा अपनी दूसरी पत्नी से ही सलाह करता था.

लेकिन किसी कारणवश उसे अपनी पहली पत्नी से अनुराग नहीं था. इसके बावजूद उसकी पहली पत्नी उसकी मदद के लिए सदा उपस्थित रहती थी, वह बहुत सुशील थी और अपनी पति को खुश रखने की हर संभव कोशिश करती थी.

एक दिन वह व्यक्ति बहुत बीमार पड़ गया और उसे अहसास हुआ कि उसका अंत निकट है. उसने अपनी चारों पत्नियों को बुलाया और बोला, “मेरी ख़ूबसूरत पत्नियों! मेरा अंत अब निकट है पर मैं अकेला नहीं मरना चाहता हूँ. तुम में से कौन मेरे साथ आने को तैयार है? ”

उसने अपनी चौथी पत्नी को आगे बुलाया और बोला, “तुम मुझे सबसे अधिक प्रिय हो. मैंने तुमसे हमेशा प्यार किया है और तुम्हें हर सर्वश्रेष्ठ वस्तु दी है. मेरी मृत्यु अब निश्चित है तो क्या तुम मेरे साथ आओगी? क्या तुम मेरा साथ दोगी?” पत्नी ने बिना सोचे झट से ‘नहीं’ कहा और पीछे मुड़कर चली गई. अपनी प्रियतम पत्नी का जवाब सुनकर उसका दिल टूट गया.

उदास मन से उसने अपनी तीसरी पत्नी को आगे बुलाया और बोला, “मेरा अंत निकट है, क्या तुम मेरे साथ चलोगी?” इस पर तीसरी पत्नी बोली, “बिलकुल नहीं. तुम्हारे जाते ही, मैं किसी और के साथ चली जाऊँगी.” फिर वह भी पीछे मुड़कर चली गई.

इसके बाद अपनी दूसरी पत्नी को बुलाकर उसने एक बार पुनः वही प्रश्न दोहराया. दूसरी पत्नी बोली, “मुझे दुःख है कि आपका अंत निकट है पर मैं केवल शमशान तक ही आपके साथ आ सकती हूँ. वहाँ तक मैं आपके साथ रहूँगी.” फिर पीछे मुड़कर वह भी अपनी जगह पर जाकर खड़ी हो गई.

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तभी पीछे से एक आवाज़ आई, “मैं आपके साथ आऊँगी.” उसने अपनी पहली पत्नी की ओर देखा और दुखी मन से बोला, “मेरी प्रियतमा, मैंने तुम्हारी ओर कभी ध्यान नहीं दिया, तुम कितनी कमज़ोर दिखती हो. अब जब मेरे जीवन का अंत आ गया है, मुझे अफ़सोस है कि मैं पहले समझ नहीं पाया कि तुम मुझे हर किसी से अधिक प्रेम करती हो. मुझे इस बात का बहुत खेद है कि मैंने हर समय तुम्हारी उपेक्षा की है.” ऐसा कहकर उस व्यक्ति का देहांत हो गया.

इस कहानी में चौथी पत्नी शरीर व उसकी तृष्णा का प्रतीक है जिसे मृत्यु के पश्चात हम खो देते हैँ. तीसरी पत्नी धन-दौलत का प्रतीक है जो हमारे शरीर छोड़ने पर दूसरों को मिलती है. दूसरी पत्नी हमारा परिवार व मित्र हैँ जो केवल शमशान घाट तक ही हमारे साथ आ सकते हैँ. पहली पत्नी जीवात्मा को दर्शाता है जो अप्रत्यक्ष होते हुए भी सदा हमारे साथ होती है. यद्यपि हमारी जीवात्मा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व प्रिय है परन्तु फिर भी हम उस पर ध्यान नहीं देते हैँ और इस बात का अहसास हमें जीवनकाल के अंत में होता है.

सीख:
शाश्वत सत्य यह है कि हम ‘शरीर’ नहीं जीवात्मा हैँ, जो जन्म व मृत्यु के परे है. ज़िन्दगी भर हम उन सभी अनावश्यक चीज़ों को महत्त्व देते रहते हैं जो निरर्थक व अस्थायी हैं. हमें अपने आध्यात्मिक विकास पर ध्यान देकर अपने जीवन को श्रेष्ठतर बनाने की चेष्ठा करनी चाहिए.

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अनुवादक- अर्चना