आदर्श: सत्य
उप आदर्श: ईमानदारी
हरिश्चंद्र, त्रिशंकु के पुत्र व राम के पूर्वज थे. उन्होंने अपनी पत्नी, तारामती और पुत्र रोहिताश्व के साथ अयोध्या पर राज्य किया था. वह एक न्यायी व कृपालु राजा थे और उनके राजकाल में उनकी प्रजा ने खुशहाल व शांतिमय जीवन व्यतीत किया था.
हरिश्चंद्र ने बचपन में ही सत्य की महत्ता सीख ली थी और उन्होंने कभी झूठ न बोलने तथा सदा अपना वादा निभाने का निश्चय किया था. समय के साथ वह अपनी सत्यवादिता, ईमानदारी और समेकता के लिए प्रसिद्ध हो गए. उनकी ख़्याति स्वर्ग में देवताओं तक पहुँची और उन्होंने हरिश्चंद्र को परखने का फैसला किया. हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने के लिए ऋषि विश्वामित्र का चयन किया गया और तदनुसार ऋषि अपने कार्य में लग गए.
अपने कार्य में सफल होने के लिए विश्वामित्र ने हर संभव प्रयास किया जिससे कि हरिश्चंद्र झूठ बोलें या अपने वादे से मुकर जाएं पर उनकी सभी कोशिशें व्यर्थ साबित हुईं. अपनी यथायोग्य प्रतिष्ठा के अनुरूप, हरिश्चंद्र अपने आदर्शों के प्रति पूर्णतया समर्पित थे.
अंततः विश्वामित्र ने परिस्थितियों का इस प्रकार हेर-फेर किया कि हरिश्चंद्र अपना राज्य व अपनी संपत्ति, ऋषि को देने के लिए मजबूर हो गए. इस प्रकार की धोखेबाजी के बावजूद भी हरिश्चंद्र ने मुस्कुराते हुए अपने राज्य का त्याग कर दिया और अपनी पत्नी व पुत्र के साथ जंगल की ओर निकल पड़े. हरिश्चंद्र की त्यागशीलता पर ऋषि अवाक थे पर राजा को उकसाने की अपनी अंतिम कोशिश में विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र से दक्षिणा माँगी.
राजा अपना सब कुछ दे चुके थे और अब उनके पास दक्षिणा में देने के लिए कुछ शेष नहीं बचा था. पर वह एक ब्राह्मण को दक्षिणा न देने का पाप नहीं करना चाहते थे और इस कारण उन्होंने विश्वामित्र से कुछ समय की मोहलत माँगी. राजा बोले, “हे ऋषि, इस समय मेरे पास मेरा अपना कुछ भी नहीं है. आपकी दक्षिणा चुकाने के लिए कृपया मुझे १ महीने का समय दीजिये.” राजा का विनम्र निवेदन सुनकर ऋषि ने उन्हें १ महीने की अनुग्रह अवधि दे दी.
ऋषि को दक्षिणा देने के लिए धन कमाने हेतु राजा देशभर में इधर-उधर भटके पर उन्हें हर जगह असफलता ही मिली. अंततः वह काशी नामक शहर पहुँचे जो आजकल वाराणसी के नाम से जाना जाता है.
काशी एक ऐसा शहर था जहाँ हर जगह से भिन्न प्रकार के लोग आते थे. ज्ञानी पुरुष और अधिक शिक्षा अर्जित करने आते थे, भक्ति व निष्ठा से पूर्ण अनेकों तीर्थ यात्री आते थे और इस पवित्र शहर में मरने के बाद स्वर्ग हासिल करने की आशा में भी अनेक वृद्ध व्यक्ति यहाँ आते थे. परन्तु ऐसे जनसंकुल शहर में होने के बावजूद भी वह रोजगार ढूँढ़ने में असफल थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो भगवान् भी हरिश्चंद्र से रुष्ठ थे.
जैसे जैसे अनुग्रह अवधि का अंत समीप आने लगा वैसे वैसे हरिश्चंद्र की परेशानी बढ़ने लगी. अपने वादे का उल्लंघन करना उन्हें गवारा नहीं था और अपने वादे का सम्मान रखने का कोई रास्ता भी नज़र नहीं आ रहा था. हरिश्चंद्र की पत्नी, तारामती भी उनके समान ही सदाचारी थी. अपने पति को परेशान देखकर आखिरकार उसने एक सुझाव रखा. वह बोली, “प्रिय स्वामी, कुछ ही दिनों में ऋषि अपनी दक्षिणा माँगने आ जाएंगे. अब तक हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाए हैं. मेरे पास एक सुझाव है जो हालांकि अनुचित प्रतीत होता है परन्तु हमारे पास शायद यही एकमात्र रास्ता है. इस शहर में अमीर लोगों के लिए काम करने के वास्ते गुलामों की बहुत आवश्यकता है. कृपया मुझे बेच दीजिए और उन पैसों से ऋषि का भुगतान कर दीजिए. बाद में जब आपके पास पर्याप्त पैसे होंगे तब आप मुझे वापस खरीद सकते हैं.”
अपनी पत्नी का सुझाव सुनकर हरिश्चंद्र हक्के-बक्के रह गए और कड़ा विरोध करते हुए बोले, “अपनी पत्नी को बेच दूँ? उसे जिसने हर कठिनाई में मेरा साथ दिया है! असंभव!!” परन्तु जैसे-जैसे समय बीतता गया और वह पैसे कमाने में असफल रहे उन्हें अपनी पत्नी की बात से सहमत होना पड़ा और पत्नी को बेचने, गुलामों के बाज़ार में गए.
वहाँ उन्होंने अपनी पत्नी को सबसे अधिक बोली लगाने वाले एक वृद्ध ब्राह्मण को बेच दिया. पत्नी के साथ नन्हा बालक भी होने के कारण वह ब्राह्मण और अधिक पैसे देने के लिए राज़ी हो गया. लाचार हरिश्चंद्र ने ब्राह्मण से पैसे लिए और पत्नी व बच्चे को ब्राह्मण के साथ भेज दिया. उसी क्षण विश्वामित्र वहाँ आये और हरिश्चंद्र से पुनः दक्षिणा की माँग की. ब्राह्मण से मिले सारे पैसे हरिश्चंद्र ने विश्वामित्र को सौप दिए पर फिर भी वह संतुष्ट नहीं हुए और बोले, “मेरी जैसी क्षमता रखने वाले ऋषि को क्या तुम ऐसी दक्षिणा दोगे? मैं ऐसा क्षुद्र पारितोषिक स्वीकार नहीं कर सकता.”
हरिश्चंद्र कोई और उपाय सोच ही रहे थे कि तभी वहाँ एक चांडाल आया. चांडाल नीची जाती के लोग होते थे जिन्हें केवल शमशान घाट पर ही रहने और काम करने की अनुमति होती थी. चांडाल ने हरिश्चंद्र से कहा कि वह एक हृष्ट-पृष्ट व्यक्ति की तलाश में है जो उसके लिए काम कर सके. चांडाल की बात सुनकर विश्वामित्र तुरंत हरिश्चंद्र की ओर देखकर बोले, “तुम मेरा भुगतान स्वयं को इस व्यक्ति को बेचकर क्यों नहीं कर देते?”
हरिश्चंद्र स्तंभित थे. चांडालों को अछूत माना जाता था. जहाँ अछूतों को छूना भी निषिद्ध था वहाँ एक राजा को उसके लिए काम करना पड़ रहा था. हरिश्चंद्र मन ही मन सोचने लगे कि एक राजा चांडाल के भी पद से नीचे कैसे गिर सकता है! पर तभी उन्हें अहसास हुआ कि उनके पास और कोई चारा नहीं था. अतः वह चांडाल के लिए काम करने को तैयार हो गए. चांडाल से पैसे मिलने पर जब हरिश्चंद्र ने ऋषि को पैसे दिए तब वह प्रसन्न व संतुष्ट हुए और उन्हें चांडाल से साथ छोड़कर वहाँ से चले गए.
चांडाल ने हरिश्चंद्र से शमशान घाट पर काम करवाना शुरू कर दिया. वह हरिश्चंद्र को शव जलाना, भुगतान माँगना और दाह संस्कार से सम्बंधित अन्य कार्य सिखाने लगा. हरिश्चंद्र शमशान घाट पर रहने लगे और हालांकि वह खुश नहीं थे पर फिर भी अपना काम निष्ठापूर्वक करते थे.
अपनी पत्नी व पुत्र को लेकर वह निरंतर परेशान रहते थे और सोचते थे, “वह दोनों किस अवस्था में होंगे? उन्हें तो यह भी नहीं मालूम है कि मैं स्वयं यहाँ एक दास हूँ. ”
समय के साथ हरिश्चंद्र को अपने काम की आदत पड़ गई. उसकी पत्नी व पुत्र भी ब्राह्मण के घर काम करने से दरिद्रता और कठोर परिश्रमी जीवन के अभयस्त हो गए. एक दिन लड़का बगीचे से फूल लाने गया पर उसे सांप ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई. बेटे को मृत देख, तारामती बेहद परेशान व शोकाकुल थी. काफी समय तक रोने के बाद वह स्वयं को अपने पुत्र के दाह-संस्कार के लिए तैयार कर पाई. बच्चे को बाँहों में लिए वह शमशान घाट लेकर आई.
शमशान घाट पर हरिश्चंद्र काम पर थे और उन्होंने एक महिला को बच्चा बाहों में लिए आते देखा. दरिद्रता व कठिन परिस्थितियों ने सबको इतना बदल दिया था कि दोनों ने एक दूसरे को नहीं पहचाना. नियमानुसार हरिश्चंद्र ने दाह-संस्कार का भुगतान माँगा. तारामती रोने लगी और बोली, “मैं एक दास हूँ और मेरे पास मेरे शरीर पर पहने कपड़ों के अलावा और कुछ भी नहीं है. मेरी एक मात्र संतान भी मर चुकी है. मैं आपको क्या दे सकती हूँ? ” महिला की दयनीय अवस्था देखकर हरिश्चंद्र को कष्ट तो बहुत हुआ पर दाह-संस्कार का भुगतान लेने के अपने कर्त्तव्य पर वह अडिग थे.
तभी हरिश्चंद्र की निगाह महिला के मंगलसूत्र पर पड़ी जो उसके विवाह का प्रतीक था. वह बोले, “अरे महिला! तुमने झूठ क्यों बोला कि तुम्हारे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है? दाह-संस्कार के भुगतान के बदले तुम मुझे अपना यह मंगलसूत्र दे सकती हो?”
तारामती आश्चर्यचकित थी. उसका मंगलसूत्र अनोखा था क्योंकि उसे केवल उसका पति ही देख सकता था. हरिश्चंद्र की बात सुनकर वह अपनी दुर्दशा पर रोने लगी और बोली, “हे नाथ, हमने अवश्य ही फिछले जीवनकालों में अनेकों कुकर्म किए होंगे जो आज हम इस दशा में हैं. मैं आपकी पत्नी हूँ लेकिन आप मुझे पहचानते नहीं. यह हमारा पुत्र है जो एक राजकुमार है- उसकी मृत्यु हो गई है पर वह अपने अंतिम संस्कार से वंचित है.”
अपनी पत्नी के कथन सुनकर हरिश्चंद्र ने उसे पहचान लिया और अपने प्रिय पुत्र और अपनी दशा पर रोने लगे. परन्तु इस सब के बावजूद वह अपने कर्त्तव्य पर अडिग थे और बोले, “दाह-संस्कार का शुल्क वसूल करना मेरा धर्म है और चाहे कुछ भी हो जाए मैं अपने कर्त्तव्य से कभी नहीं हटूँगा.”
तारामती भी अपने पति के समान धार्मिक व सच्चरित्र थी. वह बोली, “मेरे पास सिर्फ मेरे शरीर पर पहने कपड़े हैं. क्या आप इनमें से आधे कपड़े स्वीकार करके हमारे बच्चे का दाह-संस्कार करेंगे?” जब हरिश्चंद्र सहमत हो गए और वह अपने कपड़े फाड़ने लगी, उसी क्षण स्वर्ग से हर्षध्वनि उठी.
देवताओं ने दम्पति पर फूल बरसाए और विश्वामित्र साक्षात प्रकट होकर बोले, “हे राजन! सच्चाई और ईमानदारी के प्रति तुम्हारी प्रतिबद्धता की परीक्षा लेने के लिए देवताओं ने यह सारी मुसीबतें उत्पन्न कीं थीं. इन सभी परीक्षाओं में तुम न केवल विजयी साबित हुए हो बल्कि अपनी गुणवत्ता के कारण तुमने स्वर्ग में भी जगह हासिल कर ली है. तुम अपनी पत्नी व पुत्र के साथ अपने राज्य लौट सकते हो और अंतिम समय तक शासन कर सकते हो.”
ऋषि के इस प्रकार बोलते ही चिता पर मृत पड़ा नन्हा बालक उठाकर बैठ गया और आँखें मलने लगा मानो अभी नींद से उठा हो.
अपने पुत्र को जीवित देखकर हरिश्चंद्र बहुत प्रसन्न थे और उन्हें इस बात की अत्यधिक ख़ुशी थी कि उनके जीवन की परेशानियों का अंत होने वाला है. पर एक क्षण रूककर वह बोले, “हे ऋषि, हो सकता है कि यह सारी मुसीबतें आपने मेरी परीक्षा लेने के लिए उत्पन्न कीं थीं परन्तु सत्य यह है कि मैं एक चांडाल का दास हूँ और मेरी पत्नी एक ब्राह्मण की दास है. जब तक हम दास हैं तब तक हम कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकते.”
हरिश्चंद्र की बात सुनकर ऋषि बहुत खुश हुए और बोले, ” हरिश्चंद्र, तुम वास्तव में अब तक के सर्वोच्च सत्यवादी और ईमानदार व्यक्ति हो. उधर देखो- वह रहे चांडाल और ब्राह्मण! देखो वह कौन हैं?” चांडाल और ब्राह्मण वास्तव में उन दोनों की ओर ही आ रहे थे पर एकाएक उनके रूप बदल गए और जैसे वह राजा के और करीब आए, उन्हें अहसास हुआ कि ब्राह्मण, इन्द्र थे और चांडाल, धर्म(यम) थे. दोनों बोले, ” हरिश्चंद्र, तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए हमने यह रूप धारण किए थे. कृपया हमें क्षमा करना और स्वयं को मुक्त समझो. जाओ और शांतचित्त से अपने राज्य पर शासन करो.
हरिश्चंद्र अयोध्या वापस लौट गए और कुछ वर्षों तक न्यायसंगत रूप से शासन किया. समय आने पर उन्होंने अपने साम्राज्य की बागडोर रोहिताश्व को सौंप दी और स्वर्गलोक सिधार गए.
सीख:
हरिश्चंद्र का नाम सच्चाई व ईमानदारी का पर्यायवाची बन गया है. सत्यवादी राजा की कहानी ने अनेकों को प्रेरित किया है और आज भी लोगों को निरंतर विभोर करती है. राजा वास्तव में अमर है. सत्यता कार्यरत रहने योग्य सर्वोच्च कोटि का गुण है. विभिन्न कठिनाईओं के बावजूद जो सदा सत्य और ईमानदारी के मार्ग पर चलते हैं, वह अवश्य ही विजयी होते हैं और सदा याद किए जाते हैं.
source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com
अनुवादक-अर्चना