आदर्श : भक्ति
उप आदर्श : निष्ठा, विश्वास
मंदिर के एक पुजारी ने एक बार अपने बारह वर्षीय पुत्र को ईश्वर को भोजन अर्पण करने का आदेश दिया. मंदिर में केवल एक ही पुजारी था और उन्हें किसी अत्यावश्यक कार्य से बाहर जाना था. पुत्र उन्नी ने प्रभु को चावल भेंट किए. अपने भोलेपन में उसे विश्वास था कि मूर्ति भोजन का सेवन करेगी. परन्तु मूर्ति हिली भी नहीं. उन्नी पड़ोस की दुकान से कुछ नमकीन आम और दही खरीद कर लाया. उसने दही को चावल में मिश्रित किया और यह सोचकर कि भगवान को यह बेहतर पसंद आएगा, पुनः अर्पण किया. पर मूर्ति फिर भी स्थिर रही. उन्नी ने भगवान की मूर्ति को बहुत समझाया, विनती की और धमकाया भी, पर मूर्ति वैसे ही खड़ी रही. वह रोया क्योंकि उसे आभास हुआ कि वह असफल रहा है. उसने भगवान को चिल्लाकर पुकारा और कहा कि उसके पिता उसकी पिटाई करेंगे. भगवान से और बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने भोजन अंतर्ध्यान कर दिया. वह बालक संतुष्ट होकर मंदिर से चला गया. जब उसके पिता मंदिर वापस लौटे तो भोजन की थाली खाली देख, उन्नी से बेहद नाराज़ हुए. परन्तु उन्नी ने अपने पिता से आग्रह किया कि ईश्वर ने वास्तव में भोजन स्वीकृत किया था. उन्नी के मासूम बोल सुनकर उसके पिता आगबबूला हो गए. उन्हें यकीन था कि उन्नी झूठ बोल रहा है और भोजन उसने स्वयं खाया था. वह उन्नी को मारने ही वाले थे कि तभी एक दिव्य वाणी सुनाई पड़ी, “मैं अपराधी हूँ. उन्नी निर्दोष है.”
इस प्रकार भगवान ने अपने मासूम व निर्दोष भक्त का बचाव किया.