चींटी और कॉन्टैक्ट लेंस 

आदर्श: विश्वास 

उप आदर्श: भरोसा 

ब्रेंडा अपने पहले प्रस्तरारोहन(रॉक क्लाइम्बिंग) के दौरान ग्रेनाइट की एक खड़ी चट्टान पर चढ़ाई कर रही थी।  वह लगभग आधे रास्ते पहुँच चुकी थी और चटान के एक आगे निकले हुए हिस्से पर खड़ी होकर दम भर का आराम कर रही थी।  तभी उसके आँखों के सामने की सुरक्षा रस्सी अचानक टूट गई और उसके प्रहार से ब्रेंडा के कॉन्टैक्ट लेंस गिर गए। “बहुत बढ़िया!”, उसने सोचा। “यहाँ मैं चट्टान के कोने पर खड़ी हूँ, धरातल से हज़ारों फ़ीट दूर और चट्टान की शिखर भी सैकड़ों फ़ीट दूर है और अब मेरी नज़र धुंधली हो गई है।“

उसने अपने चारों ओर नज़र घुमाकर ध्यान से देखा कि शायद उसके लेंस वहाँ कहीं गिरे हों। लेकिन उसे लेंस कहीं नहीं दिखे।

उसके अंदर की घबराहट बढ़ती जा रही थी अतः वह प्रार्थना करने लगी। उसने मन की शांति और अपने कॉन्टैक्ट लेंस मिल जाने के लिए प्रार्थना की। 

जब वह चट्टान की शिखर पर पहुँची, उसकी एक मित्र ने लेंस के लिए उसकी आँख व कपड़ों की जाँच की लेकिन उसे लेंस नहीं मिले। यद्यपि शिखर पर पहुँचकर वह खुश थी लेकिन उसे दुःख था कि वह पहाड़ों की शृंखला को स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रही थी। 

उसने ईश्वर से प्रार्थना की, “हे भगवन, आप इन सभी पहाड़ों को देख सकते हैं। आप हर पत्थर व पत्ते को जानते हैं और आपको ठीक-ठीक पता है कि मेरे कॉन्टैक्ट लेंस कहाँ हैं। कृपया मेरी मदद कीजिए।“

बाद में, जब वह चट्टान की पगडंडी से चलते हुए नीचे पहुँचे तब वह पर्वतारोहियों के एक अन्य समूह से मिले जिन्होंने चट्टान की चढ़ाई तभी शुरु की थी। उनमें से एक चिल्लाकर बोला, “अरे सुनो! क्या किसी के कॉन्टैक्ट लेंस गुम हुए हैं?”

यह चौंका देने वाली बात है लेकिन आप जान ही गए होंगे कि पर्वतारोही ने लेंस क्यों देखें थे? एक चींटी यह लेंस लेकर चट्टान पर पड़ी एक टहनी की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही थी!

कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती। ब्रेंडा के पिता एक व्यंगचित्रकार हैं। जब उसने उन्हें चींटी, प्रार्थना और कॉन्टैक्ट लेंस की अविश्वसनीय कहानी सुनाई तो उन्होंने कॉन्टैक्ट लेंस लेकर जाती हुई चींटी का व्यंगचित्र बनाया जिसका शीर्षक था, “प्रभु, मुझे नहीं पता कि आप मुझे यह क्यों लेकर जाना चाहते हैं। मैं इसे खा नहीं सकती और यह बेहद भारी है। लेकिन अगर आप यही करना चाहते हैं तो मैं आपके लिए इसे लेकर जाऊँगी।“

सीख: 

हमारे लिए यह अच्छा होगा कि हम स्वयं को याद करवाते रहें, “भगवन, मुझे नहीं पता कि आप मुझे से यह भार क्यों उठवाना चाहते हैं। मुझे इसमें कुछ भी अच्छा नहीं दिख रहा है और यह अत्यधिक भारी है। लेकिन यदि आप मुझसे यह उठवाना चाहते हैं तो मैं करूँगी।“

ईश्वर योग्य व्यक्तियों को नहीं बुलाते हैं, वह जिन्हें बुलाते हैं उन्हें योग्य बना देते हैं। 

ईश्वर हमारे अस्तित्व का स्त्रोत हैं और हमारे उद्धारक हैं। ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास और आत्म-समर्पण हमें अद्भुत साहस देता है विशेषकर मुश्किल समय में। 

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अनुवादक- अर्चना 

                                  जीत या हार

आदर्श: सत्य, प्रेम 

उप आदर्श: जागरूकता, सहानुभूति 

एक युवक एक दिन मठ में आया और उसने मुख्य भिक्षु से उसे कुछ काम व खाना देने के लिए कहा। 

मुख्य भिक्षु ने उससे पूछा, “तुमने क्या पढ़ाई की है? तुम क्या काम कर सकते हो? तुम क्या जानते हो?

युवक ने उत्तर दिया, “मैंने विद्यालय में पढ़ाई नहीं की है; मैं किसी भी कार्य में निपुण नहीं हूँ। मैं केवल खाने की थाली धोने, कुटीर साफ़ करने जैसे छुट पुट काम कर सकता हूँ। मुझे और कुछ नहीं आता है। 

मुख्य भिक्षु ने पूछा, “क्या तुम्हें यक़ीन है कि तुम और कुछ नहीं जानते हो?”

युवक ने उत्तर दिया, “श्रीमन, मुझे याद आया… मैं शतरंज का खेल अच्छा खेल लेता हूँ।“

मुख्य भिक्षु बोले, “अच्छा है। अब मैं तुम्हारे खेल में तुम्हारी परीक्षा लूँगा।“

उन्होंने एक अन्य भिक्षु से बिसात और सिक्के लेकर आने को कहा और एक मेज रखने को कहा ताकि खेल शुरू हो सके।

खेल शुरू होने से पहले, मुख्य भिक्षु बोले, “देखो, मेरे हाथ में तलवार है। अगर किसी की हार हुई तो उसकी नाक काट दी जाएगी।“

युवक घबरा गया। लेकिन उसके पास और कोई चारा नहीं था अतः वह खेल खेलने के लिए सहमत हो गया।

खेल शुरू हुआ। आरम्भ में युवक ने चालों में कुछ ग़लतियाँ कीं और बिसात पर उसकी स्थिति निराशाजनक हो गई।

फिर उसने खेल पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित किया और अपनी स्थिति को सुधारकर जीतने के स्तर पर ले आया। 

युवक ने देखा कि उसके विरोधी पक्ष का भिक्षु उतेजित नहीं था लेकिन कुछ परेशान अवश्य था।

युवक ने सोचा, “मैं जीवन में एक निकम्मा हूँ। मेरे खेल हारने और मेरी नाक खोने से दुनिया में कुछ नहीं बदलेगा। लेकिन यह भिक्षु एक सुशिक्षित व्यक्ति है, साधना करता है और निश्चित रूप से बुद्धत्व प्राप्त करेगा। वह क्यों हारे?”

अतः युवक ने जान-बूझकर एक ग़लत चाल चली ताकि उसका विरोधी उस ग़लत चाल का लाभ उठाकर खेल जीत सके।

मुख्य भिक्षु ने अचानक अपनी तलवार ज़ोर से मेज पर रखी। सारे सिक्के विभिन्न दिशाओं में बिखर गए।

तब वह बोले, “खेल समाप्त हुआ। ए लड़के! मठ में तुम्हारा स्वागत है। अब से तुम मठ में हमारे साथ रहोगे।“

युवक कुछ समझा नहीं।

मुख्य भिक्षु ने समझाया, “मैंने तुमसे शतरंज का खेल खेलने के लिए इसलिए नहीं कहा था कि तुम्हारी योग्यता देख सकूँ। मैं केवल वह दो मूलभूत गुण देखना चाहता था जो आत्म ज्ञान के लिए अनिवार्य हैं।

एक “महा प्रज्ञा” है- महान जागरूकता। तुम में मुझे वह दिखी। जब तुम बुरी तरह हार रहे थे, तुमने अपना सारा ध्यान खेल पर केंद्रित कर दिया और अपनी स्थिति को सुधारकर जीतने के स्तर पर ले आए। 

यह महा प्रज्ञा है। 

दूसरा है “महा करुणा”- बेशूमार सहानुभूति। मैंने तुम में वह भी पाई। जब तुम्हारा विरोधी खेल हारने वाला था, तुमने उसकी तरफ़ अत्यंत करुणा से देखा और जान बूझकर ग़लत चाल चली ताकि वह जीत जाए। 

ये दोनों गुण साधना करने व जीवन को सार्थक बनाने के लिए पर्याप्त हैं।

“तुम्हारा मठ में स्वागत है।“

सीख:

जीवन का ध्येय जीतना या हारना नहीं है। जीतने और हारने के लिए कुछ है ही नहीं। हम अपने सीमित समय, जिसे हम ‘ज़िंदगी’ कहते हैं, का या तो आनंद ले सकते हैं या उसे सहन कर सकते हैं लेकिन आनंद या पीड़ा हमारी कल्पना का उपज है।

आनंद, कष्ट, जीत या हार से परे जाने के मार्ग का चयन बहुत कम ही करते हैं। 

अनुवादक- अर्चना     

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                                   गुरु का महत्व

आदर्श: सत्य 

उप आदर्श: समझ, विवेक, मार्गदर्शन 

स्वामी विवेकानंद जब पहली बार रामकृष्ण परमहंस के पास गए तो उन्होंने पूछा, “मैंने भगवद गीता और अन्य शास्त्रों का अनेकों बार अध्ययन किया है, मैं गीता और रामायण पर व्याख्यान व उपदेश देता हूँ। क्या मुझे अभी भी एक संत के आश्रय की ज़रूरत है; क्या मुझे अभी भी एक गुरु की ज़रूरत है?”

 रामकृष्ण ने विवेकानंद के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। 

कुछ दिनों के बाद, रामकृष्ण ने विवेकानंद को बुलाया और उन्हें पास के गाँव में जाकर एक पार्सल देने को कहा। यह गाँव समुद्र मार्ग से कुछ घंटे दूर था। उनसे कहा गया कि सवेरे नाव व नाविक तैयार रहेंगे और उन्हें केवल गाँव में जाकर निर्धारित व्यक्ति को पार्सल देना था। 

 विवेकानंद सहमत हो गए और सवेरे निकलने का निश्चय किया। 

अगली सुबह उन्होंने नाव व नाविक को समुद्र में जाने के लिए तैयार पाया। नाव में बैठकर उन्हें अचानक ध्यान आया कि उन्हें गाँव जाने का रास्ता नहीं पता था। उन्होंने नाविक से पूछा यदि उसे गाँव तक जाने का रास्ता पता था लेकिन नाविक को भी इस बारे में कोई ज्ञान नहीं था। 

 विवेकानंद ने गुरु के पास वापस जाकर गाँव जाने का सबसे छोटा रास्ता पूछने का निश्चय किया। 

इसपर रामकृष्ण बोले, “नरेंद्र, जब हम पहली बार मिले थे तब तुम्हारे द्वारा पूछे गए प्रश्न का मेरा यह उत्तर है:  आज, तुम्हारे पास माध्यम है(नाव), संसाधन है(नाविक), सड़क है(समुद्र), तुम्हें पता कि तुम्हें क्या करना है(पार्सल देना है) और तुम्हें पता है कि तुम्हें कहाँ जाना है लेकिन तुम्हें मार्ग नहीं पता है …..”

“……..इसी तरह तुमने सभी शास्त्रों का अध्ययन किया है और तुम उनपर अत्युत्तम उपदेश दे सकते हो। परंतु शास्त्रों के ज्ञान को समझने के लिए एक गुरु की आवश्यकता होती है, एक ऐसा व्यक्ति जिसने वह रास्ता पहले से ही पार किया हो और तुम्हें उस यात्रा के दौरान राह दिखा सके और हार न मानने के लिए प्रोत्साहित कर सके।“

सीख:

एक शिक्षक विशेषकर, एक गुरु जिन्होंने जीवन का अनुभव किया हो, हमें शिक्षा देने व सही मार्ग दिखाने में सक्षम होते हैं। ऐसे गुरु मिलने पर हमें उनसे जुड़े रहना चाहिए ताकि हम जीवन का सामना बेहतर ढंग से कर सकें।

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अनुवादक- अर्चना  

                              जीवन का तत्त्वज्ञान 

आदर्श : उचित आचरण 

उप आदर्श: अवगुणों पर नियंत्रण, जागरूकता 

महाभारत की एक सुंदर व्याख्या ….

संजय अंततः कुरुक्षेत्र में था, वह पवित्र मैदान जहाँ महाभारत का महान युद्ध हुआ था।

वह सोच में था कि युद्ध का कोई वास्तविक उद्देश्य था। उसे पता था कि उसे इसका उत्तर तब तक नहीं मिलेगा जब तक कि वह उस स्थान पर नहीं जाएगा जहाँ सबसे महान युद्ध हुआ था। 

ग्रंथों में कहा गया था कि युद्ध के अठारह दिनों में समाज की जनसंख्या के अस्सी प्रतिशत पुरुष लड़ाई में मारे गए थे। 

संजय ने चारों ओर देखा और वह अचरज में था कि क्या युद्ध वास्तव में हुआ था, यदि धरती ने वह सारा खून सोख लिया था, यदि जिस स्थान पर वह खड़ा था वहाँ पर महान पांडव और कृष्ण खड़े हुए थे। 

“तुम इस बारे में सच कभी नहीं जान पाओगे!” एक परिपक्व धीमी सी आवाज़ बोली।

संजय ने पीठ घुमाई तो मिट्टी के खम्भे से भगवा कपड़े पहने एक वृद्ध व्यक्ति को आते देखा। 

“मैं जानता हूँ कि तुम यहाँ कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में जानने आए हो, लेकिन तुम उस युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते जब तक कि तुम वास्तविक युद्ध के बारे में नहीं जानते,” वृद्ध व्यक्ति ने रहस्यमय ढंग से कहा। 

“क्या मतलब है आपका?”

संजय को तभी पता चल गया कि वह किसी ऐसे व्यक्ति की समक्षता में था जो युद्ध के बारे में किसी भी अन्य जीवित व्यक्ति से अधिक जानता था।  

संजय को और प्रश्न पूछने के लिए लोभित करते हुए, वृद्ध व्यक्ति ने मुस्कुराकर कहा ,“महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, शायद एक वास्तविकता लेकिन निश्चित रूप से एक तत्त्वज्ञान है।“

संजय ने अनुरोध किया, “क्या आप बता सकते हैं कि फिर तत्त्वज्ञान क्या है?”

“अवश्य। तो सुनो,” वृद्ध व्यक्ति ने बताना आरम्भ किया…..

“पांडव तुम्हारी पाँच इंद्रियों, दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श व ध्वनि के अलावा और कुछ नहीं हैं। क्या तुम जानते हो कि कौरव क्या हैं?” उन्होंने अपने आँखें सिकोड़ते हुए पूछा।

संजय ने सिर हिलाकर असहमति प्रकट की।

“कौरव वह सौ अवगुण हैं जो तुम्हारी इंद्रियों पर हर रोज़ हमला करते हैं लेकिन तुम उन पर हावी हो सकते हो। क्या तुम जानते हो कैसे?”

संजय ने पुनः सिर हिलाया।

“जब कृष्ण तुम्हारे सारथी हैं।“ वृद्ध व्यक्ति उत्साहपूर्वक मुस्कुराए और संजय उनके श्रेष्ठ परिज्ञान पर चकित था। 

“कृष्ण तुम्हारी अंतर्वाणी हैं, तुम्हारी आत्मा, तुम्हारे मार्गदर्शक हैं और अगर तुम अपने जीवन की बागडोर उनके हाथों में सौंप दोगे तो तुम्हें चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है।“

संजय स्तब्ध खड़ा था, उसने जल्दी से स्वयं को संभाला और पूछा, “यदि कौरव बुराई के प्रतीक हैं तो द्रोणाचार्य व भीष्म जैसे अच्छे लोग उनके लिए क्यों  लड़ रहे हैं?”

बूढ़े व्यक्ति प्रश्न पर उदास थे लेकिन बोले, 

“इसका अर्थ केवल यह है कि जैसे-जैसे तुम बड़े होते हो, तुम्हें अहसास होता है कि बचपन से घर के जिन बड़ों को तुम परिपूर्ण व दोषहीन समझते थे वे वैसे नहीं हैं। उनमें अपूर्णताएँ व दोष हैं। और तुम्हें एक दिन तय करना होगा कि वे तुम्हारे अच्छे के लिए हैं या बुरे के लिए। तुम्हें यह भी अहसास हो सकता है कि अच्छाई के लिए तुम्हें उनसे लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़े होने का सबसे कठिन खंड है और इसीलिए गीता महत्वपूर्ण है।“

अपने प्रश्न का स्पष्टीकरण सुनकर संजय ज़मीन पर गिर पड़ा, इसलिए नहीं कि वह थक गया था बल्कि इसलिए क्योंकि उसे युद्ध का वास्तविक मतलब समझ में आ रहा था।

“कर्ण के बारे में क्या?” संजय ने धीमे से पूछा।

वृद्ध पुरुष बोले, “आह! तुमने सबसे अच्छा प्रश्न अंत के लिए बचाकर रखा है। कर्ण तुम्हारी इंद्रियों का भाई है, वह कामना है। वह तुम्हारा अंश है पर बुराईयों के साथ खड़ा रहता है। वह अन्याय महसूस करता है और बुराईयों  के साथ रहने के लिए ठीक उस प्रकार बहाने बनाता है, जिस प्रकार तुम्हारी इच्छा हर समय करती है। 

क्या तुम्हारी इच्छा बुराईयों को अपनाने के लिए तुमसे बहाने नहीं बनाती है?”

संजय ने खामोशी से सिर हिलाया। उसने जमीन की ओर देखा। उसके मन में अनेकों विचार उमड़ रहे थे और वह उन सभी को जोड़ने की कोशिश कर रहा था। जब उसने ऊपर देखा तो वह वृद्ध पुरुष वहाँ से जा चुके थे। 

ऐसा लग रहा था मानो वह धूल के खम्भे में ओझल हो गए ….

और अपने पीछे जीवन का महान तत्त्वज्ञान छोड़ गए। 

सीख :

महाभारत हम सभी का भीतरी युद्ध है। एक बार जब हम अपनी कमियों, बुराईयों के प्रति सचेत हो जाते हैं तो हमें अपनी अंतरवाणी, अपने अंदर के कृष्ण की मदद से स्वयं को सुधारने का प्रयास शुरु कर देना चाहिए। 

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अनुवादक- अर्चना  

                                  पतंग की कहानी 

आदर्श: जीवन की सच्चाई 

उप आदर्श: सम्मान, प्रेम 

एक बेटा अपनी माँ को पतंग उड़ाते हुए बहुत ध्यान से देख रहा था। कुछ समय बाद बेटे ने माँ से कहा, “माँ, पतंग की डोरी के कारण वह और ऊँची नहीं जा पा रही है।“ यह सुनकर, माँ मुस्कुराई और उसने डोरी तोड़ दी।

पतंग और ऊँची जाती है और उसके तुरंत बाद, वह नीचे आकर ज़मीन पर गिर जाती है। बेटा बहुत ही हताश और उदास हो जाता है और तब उसकी माँ उसके पास बैठ कर उसे धीरता से समझाती है:

“बेटा, जीवन में एक स्तर पर पहुँचने के बाद, हमें लगता है कि कुछ ऐसी डोरियाँ हैं जो हमें और अधिक ऊँचाईयों तक पहुँचने से रोक रहीं है जैसे कि घर, परिवार, दोस्त, संस्कृति इत्यादि। यद्यपि हमें यह डोरियाँ बाधा प्रतीत होती हैं और हम इनसे मुक्त होना चाहते हैं लेकिन बेटा, हमेशा याद रखना कि हमारा घर, परिवार, दोस्त, संस्कृति ही हमें ऊँचाईयों पर स्थिर रहने में मदद करते हैं। यदि हम स्वयं को इन डोरियों से दूर करने की कोशिश करेंगे तो हमारी परिस्थिति पतंग की तरह हो जाएगी। हम जल्द ही गिर जाएँगे।

सीख:

हमें अपने घर, परिवार, दोस्तों, संस्कृति व रिश्तों से कभी दूर नहीं जाना चाहिए क्योंकि जब हम ऊँची उड़ान भर रहे होते हैं तब ये हमें स्थिर रखने में मदद करते हैं।

अनुवादक- अर्चना 

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                                   कंघी बेचनेवाला 

आदर्श: आशावाद 

उप आदर्श: निष्ठा, दृढ़ संकल्प 

बहुत समय पहले चीन में एक महान और क़ामयाब व्यापारी रहता था जिसका व्यवसाय कंघी बेचना था। अब जब वह वृद्ध हो रहा था और अवकाश ग्रहण करने वाला था, वह अपना व्यवसाय होशियार व सक्षम हाथों में सौंपना चाहता था। 

अतः उसने अपने तीनों बेटों को बुलाया और निर्देश दिया कि उनका काम बौध मठ में जाकर कंघे बेचने का था। उसके बेटे हैरान व भ्रमित थे क्योंकि मठ में भिक्षु गंजे होते थे। फिर भी, तीनों बेटे सौंपे गए काम के लिए निकल गए। 

दो दिन बाद, पहले बेटे ने आकर बताया कि उसने दो कंघे बेचे थे। जब उसके पिता ने पूछा कि यह उसने कैसे किया तो उसने बताया कि उसने भिक्षुओं को सलाह दी कि उनकी पीठ खुजलाने में कंघा एक लाभकारी उपकरण होगा। 

कुछ समय बाद दूसरा बेटा आया और उसने बताया कि उसने दस कंघे बेचे। उसने भिक्षुओं को सलाह दी कि कंघे उनके परिदर्शकों और तीर्थयात्रियों के लिए उपयोगी रहेंगे। मठ तक की यात्रा में अक्सर उनके बाल उलझ जाते हैं अतः मठ में प्रवेश करने के पहले वह अपने बालों में कंघी कर सकते थे। 

तीसरे बेटे ने आकर एक हज़ार कंघे बेचने के अद्भुत आँकड़े पेश किए। प्रसन्न व उत्सुक पिता ने पुत्र से पूछा कि उसने ऐसा कमाल कैसे किया।

तीसरे पुत्र ने जवाब दिया कि उसने भिक्षुओं को एक सुझाव दिया। सुझाव यह था कि यदि कंघे पर बुद्ध की कुछ शिक्षाओं की नक़्क़ाशी करवाकर परिदर्शकों व तीर्थयात्रियों को उपहार के रूप में दिया जाए तो वे हर रोज़ अपने बालों में कंघी करते समय बुद्ध की शिक्षाओं को याद कर सकेंगे। इस रचनात्मक सुझाव से सौदा हो गया। 

 यह सरल कहानी इस कहावत की पुष्टि करती है, “जहाँ चाह होती है, वहाँ सदैव राह होती है।“ किसी अवसर को अस्वीकार करना या उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयत्न न करना, आसान है। लेकिन सफलता पाने के लिए हमें हमेशा अपना सर्वश्रेष्ठ, यथार्थ व रचनात्मक प्रयास करना चाहिए। 

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अनुवादक- अर्चना 

                           अरुणी की भक्ति 

आदर्श: उचित आचरण 

उप आदर्श: गुरु के प्रति प्रेम और निष्ठा 

अरुणी, महर्षि धौम्य का एक समर्पित शिष्य था, जो बहुत समय पहले पंचाल शहर में रहता था। वह अपने गुरु के आश्रम में रहता था और जिस आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में था उसे पाने के लिए आश्रम के दैनिक कार्यों में हाथ बटाता था।  

जाड़े के एक दिन, अरुणी जलाने की लकड़ियाँ लेकर आश्रम जा रहा था। जब वह अपने गुरु के खेत से गुजर रहा था तो उसने खेत के तटबंध में एक दरार देखी। यह तटबंध खेत की उपज के लिए पानी रोक कर रखता था। अरुणी को तब अहसास हुआ कि दरार से सारा पानी बह जाएगा और पानी के अभाव से खेत की उपज नष्ट हो जाएगी। 

अरुणी ने सोचा, “मुझे क्या करना चाहिए?” अगर मैं तटबंध को फिर से बनाने के लिए रूक गया तो मुझे देर हो जाएगी और आश्रम को गरम रखने के लिए वहाँ लकड़ी नहीं है। मैं लकड़ी लेकर जल्दी से पहले आश्रम जाता हूँ और फिर आकर तटबंध को देखता हूँ।“

इस बीच, गुरु और उनके शिष्य दिन की शिक्षा के लिए एकत्रित हो चुके थे। केवल अरुणी वहाँ उपस्थित नहीं था। जल्द ही अरुणी तेज़ी से दौड़ता हुआ आया, आँगन में लकड़ी रखी, गुरु को तटबंध टूटने के बारे में सूचित किया और झटपट वापस चला गया। 

महर्षि धौम्य अपने जिम्मेदार शिष्य से प्रसन्न थे। 

अरुणी भाग कर उस खेत पर गया और पानी के रिसाव को लकड़ी के कुछ लट्ठे और मिट्टी से रोकने की कोशिश की। लेकिन इससे रिसाव बंद नहीं हुआ। पानी का भारी बहाव अरुणी द्वारा बनाए अस्थायी बाँध को बहा ले गया। वह स्वयं को लाचार महसूस कर रहा था। बिना किसी मदद के रिसाव को रोकना असम्भव प्रतीत हो रहा था और समय निकलता जा रहा था। उसने कुछ क्षण सोचा और फिर उसके मन में पानी को रोकने का एक सुझाव आया। 

जैसे जैसे शाम हुई और अंधेरा छाया, आश्रम के सभी सदस्यों को अरुणी की चिंता होने लगी। ऋषि ने सभी शिष्यों को एकत्रित किया और सभी अरुणी की खोज में निकल पड़े। जब वे खेत में पहुँचे और महर्षि ने अरुणी का नाम पुकारा, उन्हें एक हल्की सी आवाज़ सुनाई दी, “गुरुजी, मैं यहाँ हूँ!”

सभी आवाज़ की ओर भागे। उन्होंने अरुणी को पानी के रिसाव को रोकने के लिए तटबंध में आई दरार में लेटा पाया। जब वह कुछ और नहीं कर पाया तब उसने पानी के प्रवाह को रोकने के लिए अपने शरीर का उपयोग किया था। शिष्यों ने अरुणी को जल्दी से ठंडे पानी से बाहर निकाला। उन्होंने उसे आश्वस्त किया, “चिंता मत करो, अरुणी! हम दरार को ठीक कर लेंगे।“

गुरु बोले, “मेरे बच्चे, तुम उपज से अधिक अनमोल हो।“

अरुणी को एक कम्बल में ढक कर आश्रम लाया गया। महर्षि धौम्य ने स्वयं अरुणी की देखभाल की। तत्पश्चात् महर्षि ने अपने शिष्य को आशीर्वाद दिया, “अपने गुरु के प्रति अद्वितीय समर्पण और आज्ञाकारिता के लिए तुम सदैव प्रसिद्ध रहोगे।“

सीख:

अरुणी की जैसी आज्ञाकारिता ज्ञान की खोज में सफलता हेतु गुरु की कृपा जीतने के लिए अति आवश्यक थी।  हमें भी इस दिशा में अपने प्रयासों पर ध्यान देना चाहिए ताकि ईश्वर व गुरु हमें आशीर्वाद दे सकें। अपने माता-पिता व शिक्षकों का अनुसरण इस विशेष गुण का उदाहरण है। 

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अनुवादक- अर्चना 

                           डाकिया और नन्ही लड़की 

आदर्श: प्रेम 

उप आदर्श: सहानुभूति, भावुकता 

एक डाकिये ने “चिट्ठी” बोलते हुए एक घर का दरवाजा खटखटाया।

अंदर से एक बच्चे की सी आवाज़ आई, “मैं आ रही हूँ।“ लेकिन 3-4 मिनट बीत गए पर वह व्यक्ति नहीं आया। 

क्रोधित डाकिया फिर से चिल्लाया, “कृपया, जल्दी आओ और चिट्ठी ले लो।“

 बच्चे की सी आवाज़ फिर से बोली, “डाकिया जी, चिट्ठी को दरवाजे के नीचे रख दीजिए, मैं आ रही हूँ।“

डाकिया बोला, “यह पंजीकृत पत्र है जिसमें अभिस्वीकृति आवश्यक है अतः आपको हस्ताक्षर करने होंगे।“

लगभग 6-7 मिनट के बाद जब दरवाजा खुला तब डाकिया, जो विलंभ से चिढ़ा हुआ था, दरवाजा खुलने वाले व्यक्ति को खरी-खोटी सुनाने ही वाला था। लेकिन उसने जो देखा उससे वह स्तब्ध व अवाक रह गया। 

एक नन्ही लड़की जिसके पैर नहीं थे, अपने घुटनों के बल आई और चिट्ठी उठाने के लिए उसके सामने झुकी। नन्ही लड़की को देखकर डाकिये को उसपर बहुत तरस आया लेकिन उसने चुपचाप चिट्ठी दी और चला गया। ऐसा कई दिनों तक चलता रहा…..

डाकिये को दरवाजे के खुलने तक इंतज़ार करने की आदत पड़ गई, जब भी वह उस लड़की के घर चिट्ठी देने आता था। 

दिवाली तेज़ी से निकट आ रही थी और लड़की ने देखा कि डाकिया हमेशा नंगे पाँव होता था। एक बार डाकिया जब डाक लेकर आया, लड़की ने फ़र्श पर डाकिये के पदचिन्हों से चुपचाप उसके पैरों का माप ले लिया। 

दिवाली के ठीक पहले जब वह डाक लेकर आया, लड़की बोली, “अंकल, दिवाली पर यह आपके लिए मेरी ओर से उपहार है।“  

डाकिया बोला, “तुम मेरी बेटी के जैसी हो, मैं तुमसे कोई उपहार कैसे ले सकता हूँ?”  नन्ही लड़की के बार बार आग्रह करने पर, डाकिये ने उपहार ले लिया और घर जाकर पैकेट खोला।

पैकेट में जूतों का जोड़ा देखकर उसकी आँखें भर आईं क्योंकि उसकी पूरी सेवा के दौरान किसी ने भी ध्यान नहीं दिया था कि वह नंगे पैर था।

सीख:

दूसरों के दर्द को समझना, उसे महसूस करना और साँझा करना मनुष्य का विशिष्ट लक्षण है। इस संवेदनशीलता के बिना मनुष्य अधूरा है। 

हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वे हमें संवेदनशीलता का आभूषण दें ताकि दुःख के समय दूसरों के कष्ट को कम करने में योगदान दे सकें।

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अनुवादक- अर्चना 

                         आहत होना- एक विकल्प

आदर्श: आशावाद, सकारात्मक नज़रिया 

उप आदर्श: परिपक्वता, सुध बुध, आत्म-विश्वास 

अमरीका के राष्ट्रपति बनने के बाद, पहले दिन जब अब्राहम लिंकन ने अपना उद्घाटन भाषण देना शुरू किया तो भाषण के बीच एक व्यक्ति खड़ा हो गया। वह एक अमीर उच्च कुलीन व्यक्ति था। 

वह बोला, “श्री लिंकन, आपको यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि आपके पिता मेरे परिवार के लिए जूते बनाते थे।“ सारी मंत्रिसभा हँसने लगी; उन्हें लगा कि वह अब्राहम लिंकन का मज़ाक़ उड़ा रहे थे। 

लेकिन लिंकन और उनकी तरह के अन्य लोग, पूर्णतः अलग ही प्रकार की प्रकृति व साहस के बने होते हैं। 

लिंकन ने उस व्यक्ति को घूरकर देखा और बोले, “महाशय, मुझे पता है कि मेरे पिता आपके घर में आपके परिवार के लिए जूते बनाते थे और यहाँ ऐसे कई अन्य भी होंगे…..क्योंकि जिस प्रकार के जूते वह बनाते थे वैसे जूते और कोई नहीं बना सकता है। वह एक निर्माता थे। उनके बनाए जूते मात्र जूते नहीं होते थे, वह उनमें अपनी पूरी जी-जान लगा देते थे।“

लिंकन आगे बोले, “मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, क्या आपको कोई शिकायत है? क्योंकि मैं भी जूते बनाना जानता हूँ। यदि आपको कोई शिकायत है तो मैं जूते की और एक जोड़ी बना सकता हूँ। लेकिन जहाँ तक मुझे पता है, किसी ने भी मेरे पिता के बनाए जूतों के बारे में कभी कोई शिकायत नहीं की है।“

लिंकन बोले, “वह प्रतिभावान और एक महान निर्माता थे और मुझे अपने पिता पर गर्व है।”

समस्त मंत्रिसभा हक्की-बक्की थी। 

वे समझ नहीं पाए कि अब्राहम लिंकन किस तरह के इंसान थे। उन्होंने “जूते बनाने” को एक रचनात्मक कला बना दिया था। और गर्वित थे क्योंकि उनके पिता ने जूते बनाने का काम इतने अच्छे से किया था कि उनके काम के बारे में एक भी शिकायत सुनने में नहीं आई थी। 

सीख:

यह हमारे ऊपर है कि हम आहत होते हैं या नहीं। ऐसे बहुत से लोग होंगे जो अपने शब्दों व काम द्वारा हमें चोट पहुँचा सकते हैं। यदि हम में परिपक्वता और आत्म-विश्वास होगा तो हम परिस्थिति में प्रतिक्रिया दिखाने के बजाय, उसके अनुकूल रहेंगे। हमें कोई भी चोट नहीं पहुँचा सकता जब तक कि हम आहत होने का निर्णय ना करें। 

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अनुवादक- अर्चना 

हमारी संगत 

आदर्श : उचित आचरण 

उप आदर्श: सही दृष्टिकोण 

एक कौए और राजहंस में दोस्ती हो गई। एक दिन कौआ राजहंस को अपने घर ले गया और उसे एक सूखे और मुरझाए हुए पेड़ पर बैठा दिया। उस जगह पर गोबर, मांस और हड्डियों की दुर्गन्ध आ रही थी, जो चारों ओर बिखरीं हुई थी। 

राजहंस बोला, “भाई! मैं ऐसी गंदी जगह पर एक पल के लिए भी नहीं रह सकता हूँ। यदि तुम कोई पवित्र स्थान जानते हो तो मुझे वहाँ ले चलो।“

अतः कौआ राजहंस को राजा के गुप्त उपवन में ले गया। राजहंस को उसने एक पेड़ पर बैठाया और खुद भी उसके पास बैठ गया। 

जब हंस ने नीचे देखा तो उसने पाया कि उस पेड़ के नीचे राजा बैठा हुआ था और उसके सिर पर धूप पड़ रही थी। हंस, जो दयालु स्वभाव का था, ने राजा को छाया देने के लिए करुणावश अपने पंख फैला दिए जिससे राजा को धूप से राहत मिली। लेकिन कौए ने, जो दूसरों की परवाह करने वाला नहीं था, राजा के सिर पर अपना मल गिरा दिया। 

राजा ने ऊपर की ओर तीर चलाया, वह हंस को लगा और हंस नीचे गिर गया जबकि कौआ जल्दी से वहाँ से उड़ गया। 

मरते हुए हंस ने कहा, “हे राजन! मैं वह कौआ नहीं हूँ जिसने मल गिराया था। मैं वह हंस हूँ जो स्वच्छ पानी में रहता है लेकिन घटिया कौए की संगत के कारण मेरा जीवन बर्बाद हो गया।“

सीख:

जिस प्रकार लोगों को सकारात्मकता प्रभावित करती है उसी प्रकार उन्हें नकारात्मकता भी प्रभावित करती है। नकारात्मक वातावरण में एक सज्जन व्यक्ति को भी उसके अच्छे गुणों के लिए पहचाना नहीं जाता है। उसे ग़लत संगत में रहने की क़ीमत अदा करनी पड़ती है। अतः हमें सदैव सही दोस्तों का चयन करना चाहिए।

Source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com

अनुवादक- अर्चना