आदर्श: शांति
उप आदर्श: संतोष
रामचंद और प्रेमचंद पड़ोसी थे. रामचंद एक गरीब किसान था और प्रेमचंद ज़मींदार था.
रामचंद अपने जीवन से खुश था और हमेशा निश्चिन्त रहता था. रात में वह अपने घर की खिड़कियाँ व दरवाज़े खुले रखता था और गहरी नींद सोता था. यद्यपि वह गरीब था पर फिर भी वह शांत और खुश था.
प्रेमचंद सदैव बेचैन रहता था. हर रात वह अपने घर की खिड़कियाँ व दरवाज़े अवश्य बंद करता था. पर फिर भी उसे ठीक से नींद नहीं आती थी. उसे सदा यह चिंता रहती थी कि कोई उसकी तिजोरी तोड़कर सारे पैसे चोरी कर लेगा. अपने पड़ोसी रामचंद की खुशहाल व निश्चिन्त ज़िन्दगी देखकर उसे ईर्ष्या होती थी.
एक दिन प्रेमचंद ने रामचंद को बुलाया और नकद धन से भरा एक बक्सा देते हुए बोला, “मेरे प्रिय मित्र, भगवान् की कृपा से मेरे पास प्रचुर धन-दौलत है. तुम्हें अभाव में देखकर मुझे दुःख होता है. इसलिए यह धन रखो और खुशहाली का जीवन व्यतीत करो.”
रामचंद अत्यंत खुश हुआ. सारा दिन वह परम आनंद में था और इस कारण उसके चहरे पर मुस्कराहट थी. रात होने पर हमेशा की तरह वह सोने गया परन्तु किसी कारणवश वह सो ही नहीं पाया. उसने घर के सारे दरवाज़े व खिड़कियाँ बंद कर दीं पर फिर भी वह सो नहीं पाया. उसकी नज़र बार-बार धन से भरे बक्से पर टिकी हुई थी. रात भर वह अशांत और व्याकुल रहा.
सुबह होते ही वह धन से भरा बक्सा लेकर प्रेमचंद के पास गया और उससे बोला, “मेरे दोस्त, मैं गरीब ज़रूर हूँ पर तुम्हारे पैसों ने मुझसे मेरी शान्ति छीन ली है. मुझे गलत मत समझना पर कृपया अपने पैसे वापस ले लो.”
सीख:
धन-दौलत से हम सब कुछ हासिल नहीं कर सकते हैं. हमारे पास जो भी है यदि हम उसमें संतुष्ट होना सीख लें तो हम सदैव खुश रहेंगें.
source: http://www.saibalsanskaar.wordpress.com
अनुवादक- अर्चना